Special Pre-Matric Scholarship 2025: Free Residential Education for SC/ST/MBC Students in Rajasthan

प्रस्तावना:
अमेरिकी शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे विविध और विस्तृत व्यवस्थाओं में से एक है, जिसका विकास देश की स्वतंत्रता के साथ जुड़ा रहा है। यह प्रणाली प्रारंभिक औपनिवेशिक काल से लेकर आज के तकनीकी युग तक निरंतर बदलती और विकसित होती रही है। शिक्षा नीतियाँ यहां स्थानीय स्वशासन, संघीय प्रोत्साहन और नवाचार के संगम से बनती हैं। इस लेख में हम अमेरिकी शिक्षा के इतिहास, वर्तमान संरचना, नीतियों, चुनौतियों और वैश्विक सहयोग को गहराई से विश्लेषित करेंगे। साथ ही भारत-अमेरिका शिक्षा साझेदारी, सांस्कृतिक विनिमय तथा भविष्य के रुझानों पर भी प्रकाश डालेंगे। उद्देश्य है एक सार्वजनिक नीति-योग्य परिप्रेक्ष्य से समझना कि अमेरिकी शिक्षा प्रणाली कैसे कार्य करती है, उसकी कमियाँ क्या हैं, और उसे बेहतर बनाने के लिए क्या प्रयास चल रहे हैं। आइए क्रमबद्ध रूप से इन पहलुओं का अन्वेषण करें।
अमेरिका में संगठित शिक्षा की नींव उपनिवेश काल में ही पड़ गई थी। 17वीं सदी में प्यूरिटन नवागंतुकों ने न्यू इंग्लैंड क्षेत्र में बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाने पर ज़ोर दिया ताकि वे बाइबिल का स्वतः अध्ययन कर सकें। 1635 में बोस्टन लैटिन स्कूल की स्थापना हुई, जिसे अमेरिका का पहला विद्यालय माना जाता है। इसी क्रम में 1636 में हार्वर्ड कॉलेज (अब हार्वर्ड विश्वविद्यालय) की स्थापना उच्च शिक्षा हेतु हुई। शुरुआती काल में विद्यालय मुख्यतः धार्मिक और नैतिक शिक्षण पर केंद्रित थे, जबकि गणित व विज्ञान जैसे अकादमिक विषयों पर कम ध्यान दिया जाता था। दक्षिणी उपनिवेशों में उस दौर में सार्वजनिक विद्यालय दुर्लभ थे और संपन्न परिवार ही निजी ट्यूटर रख पाते थे।
अमेरिकी स्वतंत्रता (1776) के बाद शिक्षा के प्रति दृष्ट आने लगा। राष्ट्रनिर्माताओं में से थॉमस जेफ़रसन ने यह विचार रखा कि एक लोकतंत्र के सफल संचालन हेतु जनता को शिक्षित करना जरूरी है। उन्होंने कर द्वारा वित्तपोषित सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का सपना देखा, हालांकि उनकी परिकल्पना को साकार होने में समय लगा। 18वीं सदी के अंत तक कुछ कॉमन स्कूल अस्तित्व में आए – एक कक्षा, एक शिक्षक वाले स्कूल जहाँ अलग-अलग उम्र के बच्चे साथ पढ़ते थे और माता-पिता आंशिक रूप से शुल्क या वस्तुओं द्वारा सहयोग करते थे। 1783 में नूह वेब्स्टर द्वारा प्रकाशित अमेरिकन स्पेलिंग बुक (ब्लू-बैक्ड स्पेलर) ने पूरे देश में अंग्रेज़ी वर्तनी और व्याकरण के मानक स्थापित करने में मदद की।
19वीं शताब्दी में अमेरिकी शिक्षा प्रणाली ने ज्यादा संगठित रूप लेना शुरू किया। होरस मैन जैसे सुधारकों ने शिक्षा को सामाजिक समानता का साधन माना और 1837 में मैसाचुसेट्स में पहला राज्य शिक्षा बोर्ड स्थापित करने में मदद की। मैसाचुसेट्स ने ही सबसे पहले सभी के लिए निःशुल्क सार्वजनिक प्राथमिक विद्यालय स्थापित किए, जिसे आगे बढ़ाकर होरस मैन ने स्कूल सत्र को लंबा किया, शिक्षकों के वेतन बढ़ाने पर जोर दिया और पाठ्यपुस्तकों में सुधार किए। उनका मानना था कि “शिक्षा महान समतुल्यकारी (great equalizer) शक्ति है” जो समाज में अवसरों की खाई पाट सकती है। सदी के मध्य तक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बुनियादी साक्षरता से बढ़कर अकादमिक विषयों पर केंद्रित होने लगा। 1862 में Morrill Land-Grant Act पारित हुआ, जिसने कृषि एवं यांत्रिक कला कॉलेजों (लैंड-ग्रांट विश्वविद्यालयों) की स्थापना के लिए संघीय भूमि अनुदान प्रदान किए – इससे कॉर्नेल, मिशिगन स्टेट, पर्ड्यू जैसे संस्थान बने और उच्च शिक्षा का प्रसार हुआ। 1867 में संघीय स्तर पर एक शिक्षा विभाग (Department of Education) की स्थापना हुई, जिसका मकसद विभिन्न राज्यों में शिक्षा के लिए एक न्यूनतम मानक को बढ़ावा देना था।
गृहयुद्ध (1861-65) और दासप्रथा उन्मूलन के बाद पुनर्निर्माण युग में दक्षिणी राज्यों में पहली बार सार्वजनिक विद्यालय व्यापक हुए। हालांकि प्रारंभ में श्वेत और अश्वेत छात्रों के लिए अलग-अलग (विभेदकारी) स्कूल बनाए गए, फिर भी यह एक प्रगति थी कि राज्य खर्च पर सभी बच्चों की शिक्षा की नींव पड़ी। 1896 के प्लैसी बनाम फर्ग्यूसन निर्णय ने “समान लेकिन अलग” प्रणाली को वैध किया, जिसे 1954 में ऐतिहासिक ब्राउन बनाम टोपीका बोर्ड ऑफ एजुकेशन फैसले ने पलट दिया – अब अश्वेत व श्वेत के लिए पृथक स्कूल असंवैधानिक ठहराए गए। 20वीं शताब्दी तक आते-आते अधिकांश राज्यों में आवश्यक शिक्षा क़ानून बन गए थे, और 1918 तक सभी राज्यों में कम-से-कम प्राथमिक स्तर तक स्कूल जाना कानूनी अनिवार्यता बन चुकी थी। उच्च विद्यालय (हाई स्कूल) शिक्षा भी धीरे-धीरे आम हुई – विशेषकर शहरी क्षेत्रों में 1900 के बाद सार्वजनिक हाई स्कूलों की संख्या बढ़ी।
20वीं सदी के मध्य में संघीय सरकार शिक्षा में अधिक सक्रिय हुई। 1950-60 के दशक में स्पुतनिक उपग्रह प्रक्षेपण के बाद अमेरिका ने विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय रक्षा शिक्षा अधिनियम (1958) पारित किया। 1965 में राष्ट्रपति जॉनसन के ‘महान समाज’ कार्यक्रम तहत प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा अधिनियम (ESEA) पारित हुआ, जिसमें आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों के लिए Title I निधि का प्रावधान था। इसी दौ्षा अधिनियम भी लाया गया जिसने कॉलेज जाने वाले निम्न-मध्यम आय वर्ग के छात्रों के लिए वित्तीय सहायता (फ़ेडरल ग्रांट एवं ऋण) सुनिश्चित की। 1970 के दशक तक आते-आते शिक्षा में लैंगिक और नस्ली भेदभाव मिटाने के लिए अनेक कानून बने – जैसे Title IX (1972) जिसने शैक्षणिक संस्थानों में लैंगिक भेदभाव रोका, और विकलांगों की शिक्षा अधिनियम (1975) जिसने दिव्यांग छात्रों के लिए मुफ़्त व उपयुक्त सार्वजनिक शिक्षा (FAPE) अधिकार सुनिश्चित किया।
इस प्रकार, स्वतंत्रता के बाद के लगभग दो सदियों में अमेरिकी शिक्षा ने स्थानीय पहल से लेकर राज्य तथा संघीय सहयोग तक कई चरण देखे। अनिवार्य सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा का प्रसार और समानता के सिद्धांत पर आधारित सुधार – ये सभी ऐतिहासिक तत्व मिलकर वर्तमान अमेरिकी शिक्षा प्रणाली का आधार बने हैं। जैसा कि 19वीं सदी के शिक्षाविद् होरस मैन ने कहा था: “शिक्षा मानव द्वारा बनाई गई अन्य सभी युक्तियों से बढ़कर समाज में स्थितियों की महान समतुल्यकारी है।” इस आदर्श को साकार करने की कोशिश अमेरिकी शिक्षा के विकास की कहानी में साफ झलकती है।
अमेरिकी शिक्षा प्रणाली आज K–12 संरचना पर आधारित है, जिसमें किंडरगार्टन से 12वीं कक्षा तक की स्कूली शिक्षा शामिल है। आम तौर पर 5-6 वर्ष की आयु में प्री-स्कूल/किंडरगार्टन या प्रथम ग्रेड में प्रवेश होता है और 17-18 वर्ष की आयु तक हाई स्कूल (माध्यमिक) पूरा किया जाता है। शिक्षा का यह क्रम तीन स्तरों में बंटा है – प्राथमिक विद्यालय (Elementary) जो किंडरगार्टन/1st ग्रेड से 5th या 6th ग्रेड तक होता है, मध्य/कनिष्ठ माध्यमिक (Middle/Junior High) जो 6th से 8th ग्रेड (कई जगह 9th तक) को कवर करता है, और हाई स्कूल (High School) जो 9th से 12th ग्रेड तक अंतिम माध्यमिक स्तर है। अधिकांश राज्यों में इन कक्षाओं को अलग-अलग विद्यालय परिसरों में संचालित किया जाता है। हाई स्कूल के अंत में 12वीं ग्रेड पर डिप्लोमा प्राप्त होता है, जो स्नातक के समकक्ष स्कूल प्रमाणपत्र है।
शैक्षिक पाठ्यक्रम (Curriculum): अमेरिका में शिक्षा का पाठ्यक्रम और मानक काफी हद तक विकेंद्रित हैं। प्रत्येक राज्य का अपना शिक्षा विभाग या बोर्ड है जो यह तय करता है कि किन विषयों में क्या पढ़ाया जाएगा और योग्यता मानक (Learning Standards) क्या होंगे। फिर भी कुछ समानताएँ पूरे देश में दिखती हैं – जैसे प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी भाषा-कला (पठन, लेखन), गणित, विज्ञान, समाज अध्ययन, कला, शारीरिक शिक्षा आदि अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाते हैं। हाई स्कूल स्तर तक विविध कोर्स विकल्प उभर आते हैं, जिनमें उन्नत प्लेसमेंट (AP) या अंतर्राष्ट्रीय बैकलॉरिएट (IB) जैसे उन्नत कोर्स, विदेशी भाषाएँ, कंप्यूटर विज्ञान, व्यवसाय अध्ययन, इत्यादि शामिल हैं। हाल के वर्षों में राष्ट्रव्यापी शैक्षिक मानक विकसित करने की कोशिश भी हुई – जैसे कॉमन कोर स्टेट स्टैंडर्ड्स (Common Core) पहल जिसने गणित व भाषा-कला में पूरे देश में एकरूप सीखने के लक्ष्य तय किए। हालांकि कॉमन कोर को सभी राज्यों ने नहीं अपनाया और कुछ ने विरोध के बाद इसे संशोधित या त्याग दिया, फिर भी इसने पाठ्यक्रम चर्चा को राष्ट्रीय स्तर पर लाने का कार्य किया।
मूल्यांकन (Assessment): छात्रों का मूल्यांकन नियमित कक्षाकारी परीक्षाओं, परियोजनाओं और ग्रेड के रूप में तो होता ही है, साथ ही अधिकांश राज्यों में कुछ मानकीकृत परीक्षाएँ (standardized tests) भी आयोजित की जाती हैं। जैसे कई राज्यों में 3rd, 8th, 10th ग्रेड पर राज्य-स्तरीय परीक्षा से यह परखा जाता है कि छात्र राज्य द्वारा निर्धारित शिक्षा मानकों को पूरा कर रहे हैं या नहीं। No Child Left Behind Act (2001) के बाद तो मानकीकृत परीक्षणों का महत्व बहुत बढ़ गया था – इन परिणामों के आधार पर स्कूलों को उत्तरदायी ठहराया जाने लगा। इसके आलोचकों का कहना है कि इससे “परीक्षा के लिए पढ़ाने” (teach-to-test) की प्रवृत्ति बढ़ी और समग्र शिक्षा पर नकारात्मक असर पड़ा【18†L130-L136】। उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए SAT और ACT जैसे राष्ट्रीय स्तर के परीक्षण लंबे समय से महत्वपूर्ण रहे हैं, हालांकि हाल ही में कई विश्वविद्यालय इन परीक्षाओं को वैकल्पिक बना रहे हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय आकलन के रूप में NAEP (National Assessment of Educational Progress), जिसे “राष्ट्र का रिपोर्ट कार्ड” भी कहा जाता है, नियमित रूप से चौथी, आठवीं आदि कक्षाओं में नमूना छात्रों का परीक्षण करके अमेरिकी शिक्षा के रुझान दिखाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अमेरिकी छात्रों की उपलब्धि PISA, TIMSS जैसी परीक्षाओं में आंकी जाती है, जिनमें अमेरिका का प्रदर्शन औसत से थोड़ा ऊपर या मिला जुला रहता है – उदाहरण के लिए, 2018 PISA में अमेरिका विज्ञान और पढ़ने में OECD औसत से बेहतर था लेकिन गणित में औसत से नीचे रहा। मूल्यांकन के इस सारे ढांचे का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि सीखे गए ज्ञान एवं कौशल का उचित मापन हो और शिक्षा प्रणाली जवाबदेह बनी रहे।
शिक्षक एवं शिक्षण व्यवस्था: अमेरिकी स्कूलों में शिक्षकों को आमतौर पर राज्य सरकार द्वारा प्रमाणित (licensed) होना पड़ता है। एक शिक्षक बनने के लिए स्नातक डिग्री के साथ शिक्षाशास्त्र (Pedagogy) में प्रशिक्षण एवं टीचिंग लाइसेंस परीक्षा उत्तीर्ण करना अनिवार्य है। प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के अधिकांश शिक्षक सार्वजनिक स् में कार्यरत हैं और स्थानीय स्कूल डिस्ट्रिक्ट उनके नियोक्ता होते हैं। शिक्षकों के लिए औसत छात्र-शिक्षक अनुपात लगभग 16:1 है (राज्य व स्तर के अनुसार भिन्नता सहित)। अमेरिकन फेडरेशन ऑफ टीचर्स (AFT) और नेशनल एजुकेशन एसोसिएशन (NEA) जैसे शिक्षक संघ शिक्षकों के वेतन, कार्यस्थितियों और नीतिगत मामलों में आवाज़ उठाते हैं। यद्यपि हाल के दशकों में कई राज्यों में शिक्षक वेतन क्रय-शक्ति के हिसाब से घटे हैं – 2009-10 से लेकर अब तक औसत शिक्षक वेतन में लगभग 5% वास्तविक गिरावट दर्ज की गई – इस कारण से कुछ राज्यों (जैसे ओकलाहोमा, वेस्ट वर्जीनिया) में बड़े शिक्षक हड़ताल भी हुए। शिक्षकों के स्थायीकरण (tenure) पर भी बहस चलती रहती है: समर्थकों के अनुसार यह अकादमिक स्वतंत्रता और नौकरी सुरक्षा देता है, जबकि विरोधियों के अनुसार इससे अक्षम शिक्षकों को हटाना कठिन होता है।
विद्यालय वर्ष एवं दिनचर्या: अमेरिका में सामान्यतः स्कूल वर्ष अगस्त/सितंबर से शुरू होकर मई/जून तक चलता है (लगभग 9-10 महीने), बीच में गर्मियों की 2-3 माह की छुट्टी होती है। एक स्कूल दिवस ~6-7 घंटे का होता है, जिसमें कक्षाओं के अलावा अवकाश (recess), दोपहर का भोजन और कभी-कभी पाठ्येतर गतिविधियों का समय शामिल रहता है। स्कूली शिक्षा में पाठ्यक्रम के अलावा खेल, संगीत, कलाएं और क्लब जैसी सहगामी गतिविधियों पर भी जोर दिया जाता है, विशेषकर माध्यमिक स्तर पर ये छात्रों के बहुमुखी विकास का अहम हिस्सा मानी जाती हैं।
उच्च शिक्षा प्रणाली: माध्यमिक शिक्षा उपरांत अमेरिका में उच्च शिक्षा का विशाल परिदृश्य मौजूद है। इसमें सामुदायिक कॉलेज (Community College) – दो-वर्षीय स्थानीय कॉलेज जो एसोसिएट डिग्री देते हैं, चार-वर्षीय महाविद्यालय और विश्वविद्यालय – जो स्नातक (बैचलर) डिग्री प्रदान करते हैं, और स्नातक व डॉक्टरेट संस्थान शामिल हैं। कई चार-वर्षीय कॉलेज लिबरल आर्ट्स शिक्षा प्रदान करते हैं तो कई बड़े विश्वविद्यालय शोध पर केंद्रित हैं और स्नातकोत्तर (मास्टर्स, PhD, प्रोफेशनल) शिक्षा भी देते हैं। अमेरिका की उच्च शिक्षा में सार्वजनिक (राज्य संचालित) विश्वविद्यालयों के साथ ढेरों निजी विश्वविद्यालय भी हैं – जिनमें से कुछ गैर-लाभकारी प्रतिष्ठित संस्थान (जैसे हार्वर्ड, एमआईटी, स्टैनफोर्ड) हैं तो कुछ फ़ॉर-प्रॉफिट कॉलेज भी हैं। अमेरिकी विश्वविद्यालयों का वैश्विक प्रभुत्व उल्लेखनीय है – विश्व की शीर्ष 25 विश्वविद्यालयों में से 19 अमेरिका में हैं। उदाहरण के लिए, हार्वर्ड, एमआईटी, स्टैनफोर्ड, कैलिफोर्निया-बर्कली, शिकागो, येल, कोलंबिया आदि संस्थान अकादमिक रैंकिंग में निरंतर विश्व के अग्रणी संस्थानों में गिने जाते हैं। अमेरिका में कॉलेज प्रवेश प्रतिस्पर्धी हो सकता है, जिसमें उच्च GPA, SAT/ACT स्कोर, सिफारिश पत्र, निबंध और पाठ्येतर गतिविधियों का मूल्यांकन होता है। कुल मिलाकर, अमेरिकी शिक्षा संरचना विकेंद्रीकृत होते हुए भी एक लचीला ढाँचा पेश करती है: जहां प्री-के से PhD तक के कई रास्ते उपलब्ध हैं और छात्र अपनी रुचि व क्षमता अनुसार शैक्षणिक मार्ग चुन सकते हैं।
अमेरिका की संघीय शासन व्यवस्था का प्रतिबिंब इसकी शिक्षा प्रणाली के प्रशासन में भी दिखाई देता है। यहाँ कोई एकल केंद्रीय शिक्षा बोर्ड नहीं है; बल्कि संघीय, राज्य और स्थानीय तीनों स्तरों पर शिक्षा प्रशासन की भूमिकाएँ विभाजित हैं। संघीय सरकार के अंतर्गत शिक्षा विभाग (US Department of Education) एक केबिनेट-स्तरीय विभाग है, लेकिन इसका कार्य मुख्यतः नीति दिशानिर्देश, वित्तीय सहायता और नागरिक अधिकारों के प्रवर्तन तक सीमित है। अमेरिकी संविधान में शिक्षा का ज़िक्र नहीं होने के कारण, परंपरागत रूप से यह राज्यों का विषय माना जाता है (10वां संशोधन)। अतः प्रत्येक राज्य अपना स्वतंत्र राज्य शिक्षा विभाग या शिक्षा बोर्ड संचालित करता है, जो स्कूल पाठ्यचर्या मानक, शिक्षक प्रमाणन, राज्य-स्तरीय परीक्षाओं आदि के लिए जिम्मेदार है। राज्य विभाग के अधीन राजकीय मंडलियां या बोर्ड ऑफ एजुकेशन नीति निर्माण करते हैं और प्रायः जनता द्वारा निर्वाचित या गवर्नर द्वारा नियुक्त सदस्य इनमें होते हैं।
स्थानीय प्रशासन की कड़ी में स्कूल जिले (School District) आते हैं, जो एक नगर या काउंटी स्तर पर विद्यालयों का संचालन करते हैं। प्रत्येक स्कूल जिला का अपना स्कूल बोर्ड होता है (अक्सर स्थानीय नागरिकों द्वारा निर्वाचित) जो उस जिले के स्कूलों की बजट, पाठ्यक्रम रूपरेखा, नियुक्तियाँ आदि तय करता है। यह बहु-स्तरीय व्यवस्था जटिल जरूर है, लेकिन इससे स्थानीय समुदाय अपनी शिक्षा नीतियों में सीधा हस्तक्षेप और नियंत्रण रख पाते हैं। दूसरी ओर, इससे राज्य दर राज्य शिक्षा की गुणवत्ता और संसाधनों में असमानता भी देखने को मिलती है, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे।
संघीय सरकार शिक्षा में मुख्यतः वित्तीय प्रोत्साहन और क़ानूनी प्रवर्तन द्वारा दखल देती है। उदाहरणस्वरूप, 1965 के बाद से टाइटल I अनुदान आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों के स्कूलों को दिया जाता है【10†75 का विशेष शिक्षा क़ानून (IDEA) विकलांग छात्रों की शिक्षा के लिए संघीय अनुदान और नियम प्रदान करता है। 1980 के दशक से लेकर 2000 के दशक तक संघीय सरकार ने मानकीकृत परीक्षण और जवाबदेही पर जोर दिया – No Child Left Behind (NCLB) Act, 2001 इसका प्रत्यक्ष उदाहरण था, जिसने सभी राज्यों को 3-8 एवं 10वीं में वार्षिक परीक्षण और प्रदर्शन के आधार पर स्कूलों को दंड/इनाम की नीति अपनाने पर बाध्य किया। 2015 में NCLB की जगह Every Student Succeeds Act (ESSA) आया, जिसने कुछ लचीलापन बढ़ाया लेकिन अब भी राज्यों को शैक्षणिक प्रगति नापने के लिए कई उपाय करने होते हैं।
संघीय सरकार राष्ट्रीय मूल्यांकन एजेंसियों को भी संचालित करती है, विशेषकर नेशनल सेंटर फॉर एजुकेशन स्टैटिस्टिक्स (NCES) जो शिक्षा संबंधी आंकड़े एकत्र करता है और NAEP जैसे आकलन करवाता है। इसके ज़रिए राष्ट्रव्यापी रुझानों का पता चलता है और नीतियों के निर्धारण में मदद मिलती है। इसके अलावा कॉलेज स्तर पर राष्ट्रीय मान्यता (Accreditation) की व्यवस्था गैर-सरकारी क्षेत्र द्वारा संचालित क्षेत्रीय एवं पेशेवर मान्यता एजेंसियों के माध्यम से होती है, लेकिन शिक्षा विभाग इन एजेंसियों को मान्यता देता है ताकि केवल मान्यताप्राप्त (accredited) संस्थानों के छात्र ही संघीय वित्तीय सहायता (स्टूडेंट एड) के पात्र हों।
नीति निर्माण में अन्य संगठन: शिक्षा नीति प्रभावित करने में थिंक टैंक, शैक्षिक शोध संगठन, शिक्षक यूनियनों और अभिभावक संघों की भी भूमिका रहती है। जैसे नेशनल गवर्नर्स एसोसिएशन और काउंसिल ऑफ चीफ स्टेट स्कूल Officers ने कॉमन कोर मानकों को विकसित करने में योगदान दिया। हाल में शिक्षा में कुछ विवादास्पद मुद्दे (जैसे पाठ्यक्रम में नस्लीय इतिहास की पढ़ाई, लैंगिक शिक्षा आदि) भी नीति बहस का हिस्सा हैं जहां राज्य स्तर पर क़ानून बनाए जा रहे हैं। यह इंगित करता है कि अमेरिकी शिक्षा शासन न सिर्फ प्रशासनिक ढांचे का विषय है बल्कि व्यापक समाज और राजनीति के प्रभावों को भी दर्शाता है।
कुल मिलाकर, अमेरिकी शिक्षा में नीति और प्रशासन बहु-स्तरीय तथा सहभागितापूर्ण है। संघीय शिक्षा विभाग एक सहयोगी की भूमिका में “समानता लाने और महान तुल्यकारक के रूप में शिक्षा” को प्रोत्साहित करने की बात कहता है। शिक्षा मंत्री मिगेल कार्डोना ने 2022 में अपने एक वक्तव्य में कहा था कि हमें पूरे सिस्टम को “लेवल-अप” करने की आवश्यकता है ताकि शिक्षा सचमुच ग्रेट इक्वलाइज़र बन सके और अवसर व उपलब्धि अंतराल बंद हो सकें। वहीं राज्य व स्थानीय स्तर पर समुदाय की अपनी प्राथमिकताएँ हैं। इस संतुलन को साधते हुए नीति निर्माता शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने और समान अवसर प्रदान करने के लिए लगातार नीतिगत परिवर्तन करते रहे हैं।
अमेरिकी स्कूली शिक्षा मुख्यतः दो धाराओं में बंटी है – सार्वजनिक विद्यालय (Public Schools) और निजी विद्यालय (Private Schools)। सार्वजनिक स्कूल सरकार (राज्य/स्थानीय) द्वारा संचालित और कर-राजस्व द्वारा वित्तपोषित होते हैं, जबकि निजी स्कूल स्वायत्त संस्थाएं हैं जो ट्यूशन फीस, दान और स्वयं के धन से चलती हैं। लगभग 87% अमेरिकी स्कूली विद्यार्थी सार्वजनिक विद्यालयों में पढ़ते हैं, ~10% निजी स्कूलों में और बाकी ~3% होम-स्कूलिंग के अंतर्गत शिक्षित होते हैं। यह अनुपात दर्शाता है कि सार्वजनिक शिक्षा अमेरिकी समाज की रीढ़ है, वहीं निजी स्कूल एक अल्पांट या वैकल्पिक शिक्षा अनुभव के लिए।
सार्वजनिक विद्यालयों की विशेषताएं: सार्वजनिक स्कूल सभी छात्रों के लिए खुलें होते हैं – उनका मुख्य सिद्धांत सार्वजनिक प्रवेश एवं बराबरी का अवसर है। ज़ोनिंग के हिसाब से विद्यार्थी अपने स्थानीय स्कूल जिले के स्कूलों में नामांकित होते हैं (हालांकि चार्टर स्कूल या इंटर-डिस्ट्रिक्ट चॉइस जैसी नीतियों ने कुछ लचीलापन दिया है)। सार्वजनिक स्कूलों में पाठ्यक्रम राज्य द्वारा निर्धारित मानकों के अनुरूप होता है और शिक्षकों को राज्य-प्रमाणन प्राप्त होते हैं। ये स्कूल मुफ्त परिवहन, विशेष शिक्षा सेवाएं, मुफ्त/सस्ते दोपहर भोजन जैसी सुविधाएं भी प्रदान करते हैं, खासकर आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के लिए। सार्वजनिक स्कूलों में विविधता अधिक होती है – विभिन्न नस्ल, धर्म, आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चे साथ पढ़ते हैं – जो सामाजिक मेलजोल और व्यापक दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक माना जाता है।
निजी विद्यालयों की विशेषताएं: निजी स्कूल कई प्रकार के होते हैं – जैसे धर्म-आधारित (कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, यहूदी आदि पैरोचियल स्कूल), आवासीय बोर्डिंग स्कूल, मोंटेसरी/वाल्डोर्फ जैसे विशिष्ट शैक्षणिक दर्शन वाले विद्यालय, या प्रिपरेटरी स्कूल जो कॉलेज तैयारी पर केंद्रित हैं। ये स्कूल अपनी प्रवेश नीति तय कर सकते हैं (आम तौर पर एक चयन प्रक्रिया होती है) और ट्यूशन शुल्क लेते हैं, जो कभी-कभी काफी उच्च हो सकता है। निजी स्कूल सरकारी मानकों से बंधे नहीं होते, अतः पाठ्यक्रम में उन्हें स्वतंत्रता होती है – जैसे कुछ स्कूल क्लासिकल लिबरल आर्ट्स या धार्मिक पाठ्यक्रम को प्रमुखता देते हैं। कक्षा आकार आम तौर पर छोटे होते हैं और छात्र-शिक्षक अनुपात बेहतर हो सकता है। कई निजी स्कूल यह दावा करते हैं कि उनकी अकादमिक कठोरता (rigor) और अनुशासन सार्वजनिक स्कूलों से बेहतर हैं। हालांकि शोध से मिले-जुले परिणाम मिलते हैं – नियंत्रित परिस्थितियों में निजी और सार्वजनिक स्कूलों के बीच शैक्षणिक उपलब्धि में बहुत अधिक अंतर नहीं पाया गया है, जब सामाजिक-आर्थिक कारकों को समायोजित किया जाता है।
चार्टर स्कूल और वाउचर: अमेरिकी शिक्षा परिदृश्य में पिछले तीन दशकों में एक तीसरा घटक भी उभरा है – चार्टर स्कूल। ये पब्लिक फंड से चलने वाले लेकिन अपेक्षाकृत स्वायत्त स्कूल हैं, जिन्हें राज्य/संबंधित निकाय से एक charter (पटकथा) के तहत संचालन की अनुमति मिलती है। चार्टर स्कूल नियमों से कुछ छूट लेकर नए शैक्षिक मॉडल आज़मा सकते हैं, जैसे थीम-आधारित स्कूल या नवीन शिक्षण तकनीक। समर्थकों का तर्क है कि इससे प्रतिस्पर्धा और नवाचार आता है, जबकि आलोचक कहते हैं कि ये पारंपरिक सार्वजनिक स्कूलों का धन खींच लेते हैं। इसी प्रकार, कुछ राज्यों में स्कूल वाउचर या शिक्षा बचत खातों की व्यवस्था है, जिसमें सरकार प्रति-छात्र होने वाला कुछ खर्च माता-पिता को देती है जिसे वे निजी स्कूल की फीस में प्रयोग कर सकते हैं। यह स्कूल पसंद (school choice) आंदोलन का हिस्सा है, जो परिवारों को विकल्प देने पर बल देता है। किंतु वाउचर कार्यक्रम विवादित हैं – आलोचना है कि ये सार्वजनिक धन को निजी क्षेत्र की ओर मोड़ते हैं और सार्वजनिक स्कूलों को और संसाधन-वंचित कर सकते हैं।
प्रदर्शन और गुणवत्ता तुलना: जब शैक्षणिक परिणामों की बात आती है, तो उच्च आयवर्ग के इलाकों के सार्वजनिक स्कूल अक्सर बेहतरीन प्रदर्शन करते हैं, यहाँ तक कि कई निजी स्कूलों को टक्कर देते हैं। उधर प्रसिद्ध निजी स्कूल (जैसे फिलिप्स एक्सेटर अकादमी, सिडवेल फ्रेंड्स आदि) देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिहाज से जाने जाते हैं। नेशनल सेंटर फॉर एजुकेशन स्टैटिस्टिक्स के आंकड़े दिखाते हैं कि SAT/ACT स्कोर औसतन निजी स्कूल छात्रों के थोड़े बेहतर हो सकते हैं, लेकिन अंतर बहुत बड़ा नहीं है और कारक अन्य भी हैं (जैसे निजी स्कूलों में आमतौर पर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि अलग होती है)। एक क्षेत्र जहां अक्सर अंतर रहा है – स्कूल भवन एवं सुविधाएं। निजी स्कूल, खासकर महंगे बोर्डिंग स्कूल, अत्याधुनिक विज्ञान लैब, खेल परिसर, कम कक्षा आकार, और कलात्मक सुविधाएं प्रदान करते हैं, जबकि कई पब्लिक स्कूल विशेषकर शहरी/गरीब क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझते हैं।
संक्षेप में, सार्वजनिक और निजी स्कूलों का सह-अस्तित्व अमेरिकी शिक्षा को बहुरंगी बनाता है। सार्वजनिक स्कूल लोकतंत्रीय मूल्य – सबके लिए शिक्षा – का पोषण करते हैं, वहीं निजी स्कूल शैक्षणिक विविधता और पसंद के सिद्धांत को सामने लाते हैं। नीति स्तर पर दोनों को उत्तम बनाये रखने की चुनौतियाँ अलग-अलग हैं: सार्वजनिक स्कूलों के लिए पर्याप्त फंडिंग और गुणवत्ता स्थिरता सुनिश्चित करना प्राथमिक है, जबकि निजी क्षेत्र के लिए समानता और समावेशन सुनिश्चित करना (ताकि प्रतिभावान किंतु निर्धन बच्चे भी उनमें पढ़ सकें) अहम है।
वित्तपोषण के स्रोत: संयुक्त राज्य अमेरिका में शिक्षा पर कुल व्यय भारी-भरकम है – वर्ष 2020-21 में अमेरिकी सार्वजनिक प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों पर लगभग $927 बिलियन खर्च हुआ। शिक्षा के वित्तपोषण का ढाँचा बहुस्तरीय है। करीब 90% से अधिक K-12 स्कूलों का धन राज्य एवं स्थानीय सरकारों से आता है【17†L62-L68】, और शेष हिस्से के लिए संघीय सरकार योगदान देती है (2021 में संघीय हिस्सा लगभग $260 बिलियन था)। स्थानीय स्तर पर स्कूलों के लिए सबसे बड़ा राजस्व स्रोत संपत्ति कर (Property Tax) होता है, जिसके कारण समृद्ध इलाकों के स्कूलों को अधिक कर मद मिलता है जबकि गरीब इलाकों को कम। राज्य सरकारें अपने बजट से शिक्षा कोष आवंटित करती हैं, जिनमें आयकर और बिक्री कर मुख्य स्रोत होते हैं। संघीय सहायता विशेष कार्यक्रमों के लिए लक्षित होती है – जैसे शीर्षक I (गरीब छात्रों के लिए), IDEA (विकलांग विद्यार्थियों के लिए), पोषण कार्यक्रम (मुफ्त/रियायती भोजन), और हाल में COVID राहत फंड इत्यादि।
व्यय और प्राथमिकताएं: संयुक्त राज्य में प्रति-छात्र व्यय औसतन दुनिया में काफी ऊँचा है (K-12 सार्वजनिक स्कूलों में प्रति छात्र ~$13,000-15,000 वार्षिक, राज्यानुसार भिन्न)। इस धन का उपयोग शिक्षकों के वेतन एवं लाभ, स्कूल भवनों के रखरखाव, बस परिवहन, पाठ्यपुस्तकों व शैक्षिक सामग्री, तकनीक और विशेष कार्यक्रमों पर होता है। हालांकि ख़र्च का बड़ा हिस्सा (लगभग 80% तक) मानव संसाधन यानी शिक्षकों व स्टाफ के वेतन-भत्ते में चला जाता है। विभिन्न राज्यों में प्राथमिकताओं के आधार पर व्यय का वितरण अलग है – कुछ राज्य पूर्ण-दिन प्री-स्कूल या यूनिवर्सल किंडरगार्टन पर खर्च बढ़ा रहे हैं, तो कुछ हाई स्कूल में करियर और टेक्निकल शिक्षा (CTE) कार्यक्रमों पर। 2021 से संघीय सरकार एक नये रास्ते पर विचार कर रही है – राष्ट्रपति बाइडेन ने 17 साल की लगभग मुफ्त सार्वजनिक शिक्षा (Pre-K से दो वर्ष सामुदायिक कॉलेज) का एक प्रस्ताव रखा, जिसमें तीन साल की उम्र से प्री-के सुविधा और दो साल के सामुदायिक कॉलेज निशुल्क करने की बात है। यदि यह पूरी तरह लागू हुआ तो अमेरिकी शिक्षा में वित्त की संरचना और लंबी शिक्षा अवधि का नया मानदंड स्थापित होगा।
वित्तीय असमानताएँ: शिक्षा में सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक फंडिंग की असमानता है। क्योंकि स्थानीय संपत्ति कर पर भारी निर्भरता है, इसलिए धनी उपनगरीय क्षेत्रों के स्कूलों की आय कर-संपन्न करदाताओं से भरपूर होती है, वहीं गरीब अंदरूनी शहर या ग्रामीण इलाकों के जिलों को कम बजट से काम चलाना पड़ता है। एक ही राज्य के भीतर स्कूल जिला-वार प्रति छात्र वार्षिक खर्च में हजारों डॉलर का अंतर देखा गया है। कई राज्यों में बजट कटौती भी रही – कुछ राज्यों में 2008 की मंदी के बाद शिक्षा खर्च अब तक पूर्व स्तर तक नहीं लौट पाया। कम फंडिंग का मतलब कम शिक्षक/बड़ा कक्षा आकार, पुराने बुनियादी ढांचे, पाठ्यपुस्तकों और तकनीक की कमी, तथा सीमित पाठ्येतर सुविधाएं होता है। परिणामस्वरूप, वंचित समुदायों में विद्यालय गुणवत्ता में गिरावट और शैक्षिक उपलब्धि का अंतर (achievement gap) दिखता है।
सार्वजनिक शिक्षा में असमानताएँ: आर्थिक आधार के अतिरिक्त नस्लीय और स्थानिक असमानताएँ भी मौजूद हैं। आंकड़ों के अनुसार, 50% से अधिक अमेरिकी पब्लिक स्कूल छात्र अब निम्न-आय परिवारों से आते हैं। गरीबी का संबंध शैक्षिक उपलब्धि से प्रतिकूल रूप से जुड़ा है – कम आय वाले जिलों के छात्र औसतन पढ़ाई-लिखाई के मानकों पर अमीर सहपाठियों से पीछे रह जाते हैं। यह अंतर幼 और बढ़ जाता है जब स्कूली संसाधन भी अपर्याप्त हों। शहरी इलाकों में, जहां ज्यादातर छात्र अश्वेत या हिस्पैनिक हैं, कई स्कूल उच्च जरूरतों (High-Need) की श्रेणी में हैं। ऐसे स्कूलों में अनुभवी शिक्षकों की कमी, वर्ष के मध्य में हाई-टर्नओवर, और बुनियादी सुविधाओं की जर्जर हालत जैसी समस्याएं आम रहीं हैं। इसके विपरीत, समृद्ध उपनगरों या कुछ मिशनरी स्कूलों में अत्याधुनिक लैब, छोटे क्लास आकार, SAT तैयारी कोर्स, मनोविज्ञान सलाहकार, खेल के मैदान – ये सब उपलब्ध हैं।
सुधार के प्रयास: वित्तीय असमानता दूर करने को लेकर समय-समय पर प्रयास हुए हैं। अनेक राज्यों की अदालतों में स्कूल फाइनेंस मुकदमे चले जहाँ तर्क दिया गया कि राज्य संविधान द्वारा प्रदत्त “समान व उच्च-गुणवत्ता शिक्षा” अधिकार के तहत राज्य सरकार को धन का अधिक समान वितरण करना चाहिए। कई मामलों में अदालत ने राज्य को बजट आवंटन का फार्मूला सुधारने के आदेश दिए। विस्कॉन्सिन और न्यू जर्सी जैसे राज्यों ने अपनी निर्धन शहरी जिलों के लिए विशेष अतिरिक्त अनुदान कार्यक्रम (Abbott districts आदि) चलाए हैं। संघीय स्तर पर, शीर्षक I फंडिंग और Race to the Top जैसे अनुदान ने कमज़ोर स्कूलों के लिए धन उपलब्ध कराया। लेकिन आलोचकों का कहना है कि ये प्रयास अपर्याप्त हैं और सिस्टम में संरचनात्मक बदलाव (जैसे राज्यव्यापी फंडिंग बनाम स्थानीय कर निर्भरता) के बिना, गहरी असमानताएँ जारी रहेंगी।
अंततः, वित्त पोषण शिक्षा की गुणवत्ता का आधार है और जब तक “धन के अनुसार सीखने” (learning as per wealth) की समस्या रहेगी, अमेरिकी शिक्षा प्रणाली का महान समतुल्यकारी बनने का सपना अधूरा है। शिक्षा नीति विशेषज्ञ बार-बार इसपर ज़ोर देते हैं कि हर ज़िले और हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन मिलें – यह न सिर्फ सामाजिक न्याय का प्रश्न है बल्कि देश के आर्थिक-भविष्य का भी, क्योंकि वंचित प्रतिभाओं को तराशना राष्ट्र के लिए लाभप्रद होगा।
अमेरिकी शिक्षा नीति समय के साथ बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश के अनुरूप ढलती आई है। कुछ प्रमुख विशेषताएँ एवं उनके इर्द-गिर्द उठी आलोचनाएँ इस प्रकार हैं:
सार्वभौमिक शिक्षा और लोकतंत्र: एक बुनियादी विशेषता यह है कि अमेरिका ने शिक्षा को शुरू से लोकतंत्र का आधार माना। सार्वजनिक शिक्षा की निःशुल्क उपलब्धता तथा अनिवार्य शिक्षा कानून इसी दर्शन से प्रेरित थे। नीति स्तर पर यह सुनिश्चित किया गया कि किसी भी बच्चे को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा से वंचित न रहना पड़े। इसकी सफलता का पहलू यह है कि अमेरिका में साक्षरता दर उन्नीसवीं सदी से बहुत ऊंची रही, और आज हाई स्कूल स्नातक प्रतिशत ~90% के करीब है। लेकिन आलोचना यह है कि अनिवार्य शिक्षा पूरी हो जाने (18 वर्ष) के बाद काफी युवा उच्च शिक्षा में नहीं जा पाते, जिससे हाई-स्कूल-डिप्लोमा धारकों की रोजगार संभावनाएं सीमित रहती हैं। हाल के नीति सुझावों में हाई स्कूल के बाद कम-से-कम एक या दो वर्ष की स्किल ट्रेनिंग या कॉलेज को भी सार्वभौमिक बनाने की बातें हैं।
विकेंद्रीकरण बनाम समानता: नीति की दूसरी विशेषता है विकेंद्रीकृत नियंत्रण – जिससे स्थानीय समुदायों को स्वतंत्रता तो मिलती है, पर राष्ट्रीय स्तर पर गुणवत्ता में अंतर दिखता है। आलोचक कहते हैं कि एक देश में शिक्षा के 50 अलग मापदंड होना उचित नहीं, इससे कुछ राज्य (या ज़िले) पीछे रह जाते हैं। 1983 की रिपोर्ट “ए नेशन एट रिस्क” ने अमेरिकी स्कूलों की गिरती गुणवत्ता की ओर इशारा करके एक राष्ट्रीय मानक-आधारित सुधार की मांग उठाई थी। इसके बाद नियम और मानकीकरण बढ़े – जैसे 2002 में No Child Left Behind ने पूरे देश में परीक्षण आधारित जवाबदेही लागू की। इस नीति ने यह विशेषता लाई कि सभी स्कूलों को नस्ली और आर्थिक उपसमूहों सहित हर बच्चे को प्रगति करवानी है। परिणामस्वरूप अमेरिकी स्कूलों में मानकीकृत परीक्षणों का दौर चल पड़ा। आलोचकों ने इसे अत्यधिक परीक्षण की संस्कृति कहा और आरोप लगाया कि इससे पढ़ाई की रचनात्मकता घटी व कला, संगीत, सामाजिक विज्ञान जैसे गैर-परीक्षित विषयों पर कम ध्यान दिया गया। अध्यापकों पर भी स्कोर बढ़ाने का दबाव आया, जिसने कुछ जगह गलत तरीकों (यहाँ तक कि टेस्ट में हेरफेर) को जन्म दिया। 2015 के ESSA अधिनियम ने इस बोझ को थोड़ा कम किया और समग्र विद्यालय मूल्यांकन के और उपाय भी जोड़े, परंतु परीक्षण आज भी अमेरिकी शिक्षा नीति का केंद्रीय स्तंभ है।
पाठ्यक्रम एवं कॉमन कोर विवाद: 2009 में शुरू हुए Common Core मानकों को 40 से अधिक राज्यों ने प्रारंभ में अपनाया, ताकि देशभर में गणित व अंग्रेजी के अध्ययन के बेंचमार्क समान हों। यह राष्ट्रीय पाठ्यक्रम नहीं था लेकिन उससे मिलता-जुलता एक कदम था। जल्द ही इस पर राजनीतिक विवाद शुरु हो गया – कुछ ने इसे संघीय सरकार द्वारा राज्यों पर थोपे गए मानक कहा, तो अन्य ने तर्क दिया कि ये मानक अव्यावहारिक या बहुत कठिन हैं। लगभग दर्जनभर राज्यों ने बाद में कॉमन कोर से खुद को अलग कर लिया या नाम बदलकर संशोधित मानक लागू किए। यह प्रकरण दिखाता है कि अमेरिका में शिक्षा नीति संघीय बनाम राज्य अधिकारों की बहस से अलग नहीं है। आज स्थिति यह है कि कई राज्य कॉमन कोर आधारित पाठ्यक्रम चला रहे हैं लेकिन उसे अपना नाम दे चुके हैं, वहीं कुछ राज्यों के अपने स्वतंत्र मानक हैं। यह बहस जारी है कि क्या अमेरिका को एक समान राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की आवश्यकता है या विविधता रखना बेहतर है।
शिक्षक संबंधी नीतियाँ: शिक्षक नीति भी विमर्श का हिस्सा है। 20वीं सदी में अधिकांश राज्यों ने टेन्योर (Tenure) प्रणाली अपनाई थी जिसमें कुछ वर्षों की सेवा के बाद शिक्षक को स्थायी नौकरी सुरक्षा मिलती है। पिछले कुछ सालों में शिक्षक गुणवत्ता सुधार के नाम पर कुछ राज्यों ने इस व्यवस्था को ढीला किया है या योग्यता-आधारित मूल्यांकन की पहल की है। शिक्षक यूनियनों का कहना है कि टेन्योर हटाकर या सख्त करने से योग्य लोग अध्यापन छोड़ सकते हैं और शिक्षकों में असुरक्षा बढ़ती है, जबकि शिक्षा सुधार समूहों का मानना है कि अक्षम शिक्षकों को निकालना सरल होना चाहिए। इसके अलावा शिक्षक वेतन कई स्थानों पर बढ़ा नहीं है – कुछ राज्यों में बीते दशक में औसत वेतन 15-20% कम हुआ (मुद्रास्फीति समायोजित)। नतीजतन शिक्षकों की नई पीढ़ी आकर्षित करने में दिक्कतें आने लगी हैं, खासकर STEM विषयों और विशेष शिक्षा में कई पद खाली रह जाते हैं। नीति स्तर पर इस चुनौती से निपटने के लिए प्रदर्शन आधारित बोनस, टीचर फेलोशिप, और ऋण माफी जैसी योजनाएँ लाई गई हैं, मगर शिक्षा जगत में पर्याप्त प्रतिभा बनाए रखना एक सतत संघर्ष है।
स्कूल चयन और चार्टर नीति: जैसा पिछले खंड में चर्चा हुआ, स्कूल चॉइस अमेरिकी शिक्षा नीति का उभरता अंग है। रीगन और बाद के प्रशासनों ने बाज़ारू प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत शिक्षा में लाने की बात कही – इससे चार्टर स्कूल और वाउचर कार्यक्रमों को बढ़ावा मिला। नीति-विश्लेषकों के अनुसार चार्टर स्कूलों को बढ़ावा मुक्त बाज़ार पक्षधर सोच का परिणाम था। आज देश में 7,500 से अधिक चार्टर स्कूल हैं, जिनमें 35 लाख से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। डेट्रॉइट, न्यू ऑरलियन्स जैसे शहरों में आधे से ज्यादा बच्चे चार्टर स्कूलों में हैं। परंतु राज्य दर राज्य इनकी गुणवत्ता असमान है – कुछ चार्टर स्कूल उत्कृष्ट परिणाम दे रहे हैं तो कुछ समान जनसंख्या वाले सार्वजनिक स्कूलों से भी खराब प्रदर्शन पर बंद हुए। वाउचर योजनाएँ भी कुछ राज्यों/शहरों (जैसे मिलवॉकी, न्यू أورलीन्स, क्लीवलैंड) में लागू हैं और हाल ही में एरिज़ोना राज्य ने तो सभी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा बचत खाता (Education ESA) खोलकर किसी भी स्कूल को चुनने की छूट दे दी। समर्थक इसे गरीब परिवारों के लिए निजी स्कूल का मार्ग खोलना बताते हैं, जबकि आलोचना है कि इससे सार्वजनिक स्कूल प्रणाली कमजोर होती है और उत्तरदायित्व का अभाव रहता है। नीति बहस दोनों पक्षों को ध्यान में रखकर चल रही है और संभवतः मध्यमार्ग – जैसे कड़े मानकों वाले चार्टर और लक्ष्यित वाउचर – अपनाने की ओर बढ़ेगी।
शिक्षा गुणवत्ता और अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा: अमेरिकी शिक्षा नीति अक्सर दुनिया में प्रतिस्पर्धा संदर्भ में भी अपनी कमियाँ नापती है। हर कुछ वर्षों में PISA जैसे अंतरराष्ट्रीय परीक्षणों में अमेरिका का औसत प्रदर्शन (विशेषकर गणित में) नीति निर्माताओं को चिंतित करता है। यह सवाल उठता है कि 21वीं सदी में अमेरिकी छात्र एशिया या यूरोप के समकक्ष छात्रों से पीछे क्यों हैं। कुछ विश्लेषक पाठ्यक्रम की गहराई, विज्ञान-गणित शिक्षण की गुणवत्ता और सांस्कृतिक कारकों को वजह मानते हैं। इसीलिए STEM शिक्षा को बढ़ावा देना, कंप्यूटर कोडिंग अनिवार्य करना, कठिन पाठ्यक्रम (rigor) लाना – ये सब नीति एजेंडा का हिस्सा बने। आलोचक कहते हैं कि अमेरिका को टेस्ट स्कोर के पीछे भागने की बजाय व्यापक शिक्षा (whole education) पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें रचनात्मकता, आलोचनात्मक चिंतन, नागरिक शास्त्र, कला-संगीत सबका संतुलन हो।
उच्च शिक्षा नीति और ऋण संकट: स्कूली शिक्षा के साथ ही अमेरिकी उच्च शिक्षा नीति की भी अपनी चुनौतियाँ हैं। एक मुख्य मुद्दा है कॉलेज ट्यूशन की बढ़ती लागत और उससे उपजा छात्र ऋण संकट। औसत कॉलेज ग्रेजुएट पर लगभग $30-40 हज़ार का ऋण है और कुल मिलाकर अमेरिकी छात्र ऋण बोझ $1.6 ट्रिलियन से अधिक हो चुका है। नीति के स्तर पर Pell Grant (निम्न आय छात्रों के लिए संघीय अनुदान) और सब्सिडाइज्ड ऋण की सुविधा है, पर बढ़ती फ़ीस ने इसे दबा दिया है। बाइडेन प्रशासन ने 2022 में आंशिक ऋण माफी की कोशिश की, जो न्यायालय में अटक गई, किन्तु 2023 में आय-आधारित पुनर्भुगतान योजनाओं (IDR) को उदार बनाया गया। कई राज्य community college मुफ्त करने पर काम कर रहे हैं (जैसे टेनेसी का मुफ्त कम्युनिटी कॉलेज प्रोग्राम)। इसके अलावा उच्च शिक्षा तक पहुंच में असमानता भी एक मसला है – कुलीन विश्वविद्यालयों में अल्पसंख्यक या निर्धन पृष्ठभूमि के छात्रों का प्रतिनिधित्व अब भी कम है, जिसे बढ़ाने के लिए विशेष भर्ती प्रयास और आफ्टर-स्कूल कॉलेज रेडी प्रोग्राम चल रहे हैं। 2023 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने कॉलेज दाखिलों में Affirmative Action (जातीय आधार पर वरीयता) को सीमित कर दिया, जिसके बाद नीति निर्माता नए रास्ते ढूंढ रहे हैं कि विविधता कैसे बनी रहे।
इन विशेषताओं और विवादों को देखते हुए स्पष्ट है कि अमेरिकी शिक्षा नीति एक संतुलन साधने का प्रयास है – स्थानीय स्वतंत्रता बनाम राष्ट्रीय समानता, परीक्षा-आधारित जवाबदेही बनाम समग्र शिक्षा, बाजारू विकल्प बनाम सार्वजनिक प्रणाली को मजबूत करना, और शैक्षणिक उत्कृष्टता बनाम सबके लिए समान अवसर। आलोचनाएँ इस नीति-पथ को निर्देशित करने में अहम हैं। विचारकों का मानना है कि शिक्षा में सुधार जीवंत लोकतांत्रिक बहस से ही आएगा। अमेरिकी नीति निर्माता और समुदाय इस बहस को जारी रखते हुए नए समाधानों की तरफ बढ़ रहे हैं ताकि हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके और समाज की प्रगति में शिक्षा अपनी भूमिका निभा सके।
आज के छात्रों के सामने शिक्षा प्राप्त करने के क्रम में कई गंभीर चुनौतियाँ उभर कर आई हैं, जिनका समाधान खोजे बिना शिक्षा में सफलता अधूरी रह सकती है। इनमें प्रमुख हैं – शिक्षा का आर्थिक बोझ (Student Debt), छात्रों का मानसिक स्वास्थ्य, और हाल ही में COVID-19 महामारी के प्रभाव।
1. शिक्षा का आर्थिक बोझ (Student Loan Debt): जैसा ऊपर उल्लेख हुआ, कॉलेज शिक्षा की बढ़ती लागत ने छात्रों को बड़े ऋण लेने पर मजबूर किया है। अमरीका में कॉलेज ट्यूशन और आवास-भोजन खर्च पिछले दो दशकों में कई गुणा बढ़े हैं, जबकि आमदनी उस अनुपात में नहीं बढ़ी। परिणामस्वरूप, अनुमानित 43 मिलियन अमेरिकियों पर छात्र ऋण बकाया है और कुल ऋण राशि लगभग $1.6-$1.77 ट्रिलियन तक पहुंच चुकी है। औसत स्नातक के सिर पर करीब $30-40 हज़ार का कर्ज़ है, पर बहुत से विद्यार्थी इससे कहीं अधिक देनदारियां लेकर निकलते हैं – खासकर पेशेवर डिग्री (मेडिकल, लॉ आदि) वाले या निजी विश्वविद्यालयों से पढ़ने वाले। इस ऋण-बोझ का सीधा असर युवाओं के जीवन निर्णयों पर पड़ रहा है: कई स्नातक कर्ज़ चुकाने तक घर, शादी, व्यवसाय शुरू करने जैसे कार्य टाल रहे हैं। मानसिक दबाव भी बढ़ता है। इसे आधुनिक शिक्षा प्रणाली की एक बड़ी खामी के रूप में देखा जाता है कि एक बेहतर ज़िंदगी के प्रयास में शिक्षा लेने पर युवाओं को आर्थिक संघर्ष में फँसना पड़ रहा है। नीति स्तर पर इस समस्या से निपटने के लिए छात्र ऋण पर ब्याज दर कम करने, आंशिक ऋण माफी, तथा आय-आधारित पुनर्भुगतान योजनाएं (जिसमें कम कमाई पर कम किस्त और तय वर्ष बाद शेष ऋण माफ) जैसे कदम उठाए गए हैं। फिर भी, जब तक कॉलेज की मूल लागत नियंत्रित नहीं होती, यह चुनौती कायम रहने वाली है। इसके चलते कुछ युवा कॉलेज न जाकर सीधे रोज़गार चुन रहे हैं या वैकल्पिक कौशल कार्यक्रमों की ओर देख रहे हैं।
2. मानसिक स्वास्थ्य संकट: अमेरिकी छात्रों के बीच मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ तेज़ी से बढ़ती चिंताओं में हैं। प्रदर्शन का दबाव, सामाजिक परिवेश, आर्थिक चिंताएं – इन सबके संगम से छात्र-छात्राओं में चिंता (anxiety), अवसाद (depression) और अन्य समस्याएं पिछले वर्षों में काफी बढ़ी हैं। उच्च शिक्षा में तो यह और गम्भीर है – एक अध्ययन के अनुसार करीब दो-तिहाई कॉलेज छात्रों ने “भारी चिंता” (overwhelming anxiety) महसूस करने की बात कही। माध्यमिक और यहां तक कि प्राथमिक स्तर तक भी तनाव के लक्षण देखे जाने लगे हैं। साइबर-बुलिंग, सोशल मीडिया का प्रभाव, और किशोरों में आत्म-छवि संबंधी परेशानियाँ भी बढ़ी हैं। बुलिंग (Bullying) एक पुरानी समस्या है जो अब ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भी फैल गई है; हालांकि आंकड़ों के मुताबिक 2007 से 2019 के बीच स्कूल बुलिंग की दर 32% से घटकर ~20% हुई है, फिर भी हर पाँच में से एक बच्चा बुलिंग का शिकार हो रहा है【18†L149-L157】। मानसिक स्वास्थ्य समर्थन प्रदान करने में स्कूल प्रणाली अक्सर संघर्ष करती है – अनुशंसित परामर्शदाता-विद्यार्थी अनुपात 1:250 या बेहतर का है, पर वास्तविकता में कई स्कूलों में एक काउंसलर पर 400-500 या उससे अधिक छात्र हैं। अप्रैल 2022 में एक सर्वेक्षण में 69% सार्वजनिक स्कूलों ने बताया कि महामारी के बाद से उनके यहाँ मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ लेने वाले छात्रों की संख्या बढ़ गई है। किंतु मात्र 13% स्कूल प्रमुखों ने कहा कि वे प्रभावी ढंग से सभी जरूरतमंद छात्रों को सेवाएँ दे पा रहे हैं। इस कमी के कारण कई छात्र बिना सहायता के रह जाते हैं या बाहरी महंगे इलाज पर निर्भर होते हैं। नीति और स्कूल दोनों स्तरों पर अब इस ओर अधिक ध्यान दिया जा रहा है: सोशल-इमोशनल लर्निंग (SEL) कार्यक्रम, स्कूल में थेरेपिस्ट की नियुक्ति, शिक्षकों को मानसिक स्वास्थ्य पहले पहचानने का प्रशिक्षण, और छात्र सहायता समूह आदि बनने लगे हैं।
3. COVID-19 महामारी का प्रभाव: वर्ष 2020 में फैली COVID-19 वैश्विक महामारी ने शिक्षा जगत को अप्रत्याशित रूप से प्रभावित किया। संक्रमण की रोकथाम हेतु अमेरिका में मार्च 2020 से अधिकांश स्कूल अचानक बंद कर दिए गए और ऑनलाइन शिक्षा का सहारा लेना पड़ा। परंतु सभी स्कूलों और छात्रों के पास दूरस्थ शिक्षा के लिए आवश्यक साधन (तेज़ इंटरनेट, लैपटॉप/टैबलेट) मौजूद नहीं थे, जिससे एक डिजिटल डिवाइड उजागर हुई। ग्रामीण इलाकों और गरीब परिवारों के बच्चे कक्षाओं से वंचित रह गए या बाधित अध्ययन करना पड़ा। शिक्षकों के लिए भी अचानक ऑनलाइन पढ़ाना एक चुनौती थी जिसके लिए बहुतों को तैयार नहीं किया गया था। पढ़ाई की निरंतरता भंग होने से, विशेषकर छोटी कक्षाओं में सीखने की हानि (Learning Loss) देखने को मिली। राष्ट्रीय शैक्षिक प्रगति आकलन (NAEP) के लंबे-कालिक परिणाम दर्शाते हैं कि 9-वर्षीय बच्चों के गणित और पढ़ने के औसत स्कोर 2020-22 के दौरान दशकों में पहली बार गिरावट दर्ज की गई। उदाहरणस्वरूप, चौथी और आठवीं कक्षा के गणित में 2019 की तुलना में 2022 में औसत स्कोर ~5-8 अंक तक कम थे – यह गिरावट चिंताजनक मानी गई क्योंकि पिछली प्रगति एक झटके में उलट गई। कई शिक्षाविदों ने इसे “सीखने की महामारी” कहा। गरीब और अल्पसंख्यक समुदायों में सीखने का नुकसान अधिक था, जिससे उपलब्धि अंतर और बढ़ गया।
2021-22 में स्कूल खुलने पर नई समस्याएँ सामने आईं – अनुपस्थितिस (absenteeism) बढ़ी, अनेक छात्र स्कूल लौटने में हिचकिचा रहे थे या बीच में पढ़ाई छोड़ चुके थे। व्यवहार संबंधी समस्याएं और वर्ग-कक्ष में अनुशासन की चुनौती बढ़ी जिसका श्रेय दो साल के सामाजिक अलगाव को दिया गया। महामारी ने छात्रों की मानसिक सेहत पर भी गहरा असर डाला – चिंताएं, अवसाद के मामले उछाल पर थे और स्कूलों ने व्यवहार किया कि अधिक बच्चे काउंसलिंग की मांग कर रहे हैं। सकारात्मक पक्ष देखें तो, स्कूलों ने टेक्नोलॉजी का बेहतर इस्तेमाल सीखा और अब एक हाइब्रिड शिक्षण मॉडल का कौशल विकसित हुआ है जो आपातकाल या सामान्य दिनों में भी पूरक रूप से काम आ सकता है।
सरकार ने COVID राहत पैकेज (CARES Act, American Rescue Plan) के तहत स्कूलों को अरबों डॉलर की सहायता दी ताकि वे तकनीकी उपकरण खरीदें, ट्यूशन और रिकवरी कार्यक्रम चलाएं, और वेंटिलेशन जैसी स्वास्थ्य सुरक्षा सुधारे। 2022-23 से कई जिलों ने समर स्कूल, ट्यूटोरिंग और शून्य काल (zero period) जैसी पहल शुरू की हैं ताकि सीखने के नुकसान की भरपाई की जा सके। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि पूर्णतः उबरने में कई साल लगेंगे और इस दौरान उन छात्रों का विशेष ध्यान रखना होगा जो पिछड़ गए थे।
अन्य चुनौतियाँ: उपरोक्त के अलावा, अमेरिकी छात्रों के सामने कुछ और दुष्वारियां भी हैं। स्कूलों में हिंसा और सुरक्षा एक चिंतनीय विषय है – दुर्भाग्यवश अमेरिका में स्कूलों पर गोलीबारी की घटनाएं (school shootings) सामने आती रही हैं, जिससे छात्र भय और असुरक्षा महसूस करते हैं। एक सर्वे में 50% से अधिक किशोरों ने माना कि वे स्कूल में बंदूक़ हिंसा की संभावना को लेकर चिंतित है । इसने सुरक्षा ड्रिल, मेटल डिटेक्टर, और स्कूलों में पुलिस उपस्थिति (स्कूल रिसोर्स ऑफिसर्स) को बढ़ावा दिया, लेकिन समांतर रूप से इन उपायों की आलोचना भी होती है कि क्या ये स्वस्थ सीखने के माहौल पर विपरीत असर डालते हैं। पारिवारिक सहभागिता की कमी भी एक कारक है – शिक्षक बताते हैं कि यदि माता-पिता/अभिभावक बच्चे की पढ़ाई में रुचि न लें, होमवर्क और नैतिक समर्थन न दें, तो स्कूल का प्रभाव कम पड़ जाता है। आज के तेज़ रफ्तार जीवन में कई माता-पिता अपने करियर या मुश्किल हालात के चलते बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। COVID के दौरान अभिभावकों की भागीदारी कुछ बढ़ी (क्योंकि घर से पढ़ाई हो रही थी), अब स्कूल इसे बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील हैं।
इन समस्त चुनौतियों का छात्र अनुभव पर गहरा प्रभाव पड़ता है। किसी भी शिक्षा सुधार का असली परीक्षण यही है कि वह विद्यार्थियों के इन वास्तविक मुद्दों को कितना हल कर पाता है। वर्तमान में नीति-निर्माता कॉलेज को किफायती बनाने, मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने, सीखने के नुकसान की भरपाई करने और सुरक्षित व समावेशी स्कूल वातावरण प्रदान करने को उच्च प्राथमिकता दे रहे हैं। विद्यार्थियों की आवाज़ भी अब नीतियों में शामिल की जा रही है – कई स्कूल बोर्डों में छात्र प्रतिनिधि होते हैं और सर्वेक्षणों द्वारा उनकी आवश्यकताओं को समझा जाता है। असल में, एक समर्थ और प्रसन्न छात्र ही समाज का सतत विकास कर सकता है, अतः इन चुनौतियों का समाधान ढूंढना शिक्षा जगत के लिए अत्यंत आवश्यक है।
उपरोक्त चुनौतियों और आलोचनाओं के मद्देनज़र, अमेरिकी शिक्षा प्रणाली में अनेक सुधार एवं नवाचार प्रयास चल रहे हैं। ये प्रयास शैक्षिक परिणामों को बेहतर बनाने, बराबरी लाने और 21वीं सदी की जरूरतों के अनुरूप शिक्षा ढालने हेतु किए जा रहे हैं। कुछ प्रमुख पहलुओं पर नजर डालते हैं:
1. EdTech और डिजिटल शिक्षा: शिक्षा में तकनीकी नवाचार (EdTech) को अपनाना एक बड़ा सुधार माना जा रहा है। खासकर COVID-19 के बाद, डिजिटल साधनों का महत्व तेजी से बढ़ा है। लगभग सभी स्कूल अब किसी न किसी रूप में लर्निंग मैनेजमेंट सिस्टम (LMS), ऑनलाइन कंटेंट या उपकरणों का उपयोग करते हैं। खान अकादमी जैसे मुफ्त ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म ने गणित-विज्ञान सीखने को सहूलियत दी है। कई स्कूल जिलों ने 1:1 डिवाइस पहल (प्रत्येक छात्र को लैपटॉप/टैबलेट) चलाई है ताकि हर बच्चा तकनीक का फायदा उठा सके। व्यक्तिगत अनुकूलन (Personalization) की दिशा में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आधारित ट्यूटर और एडप्टिव लर्निंग सॉफ़्टवेयर लाए जा रहे हैं, जो प्रत्येक छात्र की गति और स्तर के अनुसार अभ्यास व फीडबैक देते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ कक्षाओं में आईबीएम वॉटसन या अन्य AI टूल गृहकार्य में मदद करते हैं, वहीं Khanmigo (खान अकादमी का AI) छात्रों के प्रश्नों का उत्तर देता है। ये तकनीकें शिक्षकों के लिए भी सहायक हैं – ग्रेडिंग ऑटोमेशन, छात्रों की सीखने की प्रगति का डेटा विश्लेषण, आदि संभव हो रहा है। हालांकि EdTech के प्रसार में चुनौतियाँ भी हैं – प्रारंभिक ट्रेनिंग, डिवाइस मेन्टेनेन्स, डेटा गोपनीयता आदि का ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन समग्र रूप से, डिजिटल लर्निंग को शिक्षा सुधार का अभिन्न हिस्सा माना जा रहा है, जिससे किसी भी स्थान और गति पर सीखना सुलभ होगा और one-size-fits-all पद्धति से निकलकर व्यक्तिगत सीखना प्रोत्साहित होगा।
2. पाठ्यक्रम सुधार एवं नवाचार: कई राज्य और जिले अपने पाठ्यक्रम को पारंपरिक ढर्रे से आगे बढ़ाकर नया रूप दे रहे हैं। STEM शिक्षा (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अभियांत्रिकी, गणित) पर खास बल है – रोबोटिक्स क्लब, कोडिंग क्लासेज़, यहां तक कि प्राथमिक स्तर पर भी सरल प्रोग्रामिंग सिखाई जा रही है। कुछ स्कूलों ने प्रॉजेक्ट आधारित अधिगम (Project-based learning) अपनाया है, जिसमें विद्यार्थी रटने के बजाय वास्तविक जीवन परियोजनाओं के जरिए शिखर को प्राप्त करते हैं। इस तरीके से समस्या-समाधान, सहयोग और रचनात्मकता को बढ़ावा मिलता है। करियर और तकनीकी शिक्षा (CTE) का पुनर्जीवन हो रहा है – पुराने समय के वोकेशनल प्रोग्राम को आधुनिक रूप में लाकर हाई स्कूल के छात्रों को स्वास्थ्य सेवा, आईटी, उन्नत निर्माण आदि क्षेत्रों के कौशल सिखाए जा रहे हैं ताकि स्कूल के तुरंत बाद रोजगार या कम्युनिटी कॉलेज में आसानी हो। कुछ जिले “यात्रा-आधारित अधिगम” (expeditionary learning) या मोंटेसरी/वाल्डॉर्फ जैसे विकल्प भी सार्वजनिक चार्टर के रूप में दे रहे हैं, ताकि भिन्न सीखने की शैली वाले छात्र उपयुक्त माहौल पा सकें। कॉमन कोर विवाद के बावजूद कई जगह उच्च-गुणवत्ता पाठ्यक्रम सामग्री (HQIM) का उपयोग बढ़ा है – उदाहरण के लिए अंग्रेजी में ऐसे उपन्यास/निबंध शामिल करना जो विविध संस्कृतियों को दर्शाएं और महत्वपूर्ण चिंतन को प्रेरित करें।
3. छात्र-सहायता कार्यक्रम: सीखने के अलावा, छात्रों को समग्र समर्थन (whole-child support) देने पर जोर बढ़ा है। अब स्कूल केवल अकादमिक संस्थान नहीं बल्कि एक समुदाय केंद्र की तरह देखे जा रहे हैं जो बच्चे की सभी आवश्यकताओं – शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक – का ख्याल रखते हैं। स्कूल आधारित मानसिक स्वास्थ्य सलाहकार, समाजसेवी (social workers), और स्कूल नर्स की उपलब्धता बढ़ाने के प्रयास हैं। नाश्ता और दोपहर का भोजन मुफ्त देने वाली योजनाएँ अब कई राज्यों में सार्वभौमिक हो रही हैं (ताकि कोई भी बच्चा भूखा न रहे और ध्यान से पढ़ सके)। स्कूल के बाद के कार्यक्रम (after-school programs) और ट्यूटरिंग को कोविड पश्चात विशेष फंडिंग मिली है – इससे छात्रों को घर पर असाइनमेंट में मदद, रचनात्मक क्लब, या खेल-कूद का अवसर मिल रहा है जो विकास में सहायक है। कुछ जिलों ने क्रेडिट रिकवरी प्रोग्राम शुरू किए हैं, जिससे जो छात्र किसी कोर्स में फेल हो जाएं वे गर्मियों में या ऑनलाइन पाठ्यक्रम लेकर क्रेडिट पा सकें और समय पर स्नातक हो सकें। पॉज़िटिव बिहेवियर सपोर्ट की नीतियों द्वारा स्कूल अनुशासन को दुरुस्त करने के नए तरीके अपनाए जा रहे हैं – निलंबन/बहिष्कार कम करके, उनके बदले परामर्श, पुनर्स्थापनात्मक न्याय (restorative justice) आदि शामिल हैं, ताकि छात्रों को सुधार का अवसर मिले न कि कठोर सज़ा से स्कूल से ही दूर कर दिया जाए।
4. शिक्षकों के लिए समर्थन और प्रशिक्षण: किसी भी सुधार का कार्यान्वयन शिक्षकों पर निर्भर करता है। इसलिए हाल के वर्षों में शिक्षक-प्रशिक्षण सुधार भी एजेंडा पर है। स्टेम फ़ेलोशिप, टीच फॉर अमेरिका जैसी पहल जहां तेज-तर्रार ग्रेजुएट्स को अल्पकालिक प्रशिक्षण देकर कठिन इलाकों में पढ़ाने भेजा जाता है, वे काफी चर्चा में रहीं हैं। हालांकि उनकी सफलता मिलीजुली है, लेकिन पारंपरिक शिक्षण कार्यक्रम भी खुद को अपडेट कर रहे हैं – इसमें प्रैक्टिकम को बढ़ाना, कक्षा प्रबंधन के आधुनिक कौशल, तकनीकी दक्षता, और विविध कक्षाओं में पढ़ाने के तौर-तरीकों पर अधिक जोर दिया जा रहा है। व्यावसायिक विकास (Professional Development) को लगातार चलने वाली प्रक्रिया की तरह देखा जा रहा है – शिक्षक कार्यशालाएं, पीयर लर्निंग कम्युनिटीज़, और क्लासरूम कोचिंग के माध्यम से अपनी प्रैक्टिस सुधारते हैं। कुछ जगहों पर वेतन भेद्यता (pay differentiation) की नीति आई है – STEM या विशेष शिक्षा के शिक्षकों को अतिरिक्त भत्ता, या मेरिट पे सिस्टम जिससे उत्कृष्ट प्रदर्शन वाले शिक्षकों को पुरस्कार मिले। इन कदमों पर बहस है, किन्तु इनका उद्देश्य योग्य शिक्षकों को बनाए रखना और पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता को उभारना है।
5. शैक्षिक समानता के विशेष प्रयास: असमानताओं को पाटने के लिए केंद्रित प्रोग्राम चल रहे हैं। अर्ली हेड स्टार्ट और हेड स्टार्ट कार्यक्रम (1965 से) गरीबी में पल रहे बच्चों को प्री-स्कूल शिक्षा देते हैं, जिन्हें आधुनिक अनुसंधान और सहयोग से और सुधारा जा रहा है। अल्पसंख्यक लड़कों (जैसे अफ्रीकी-अमेरिकन या लैटिनो) के लिए मेंटरशिप प्रोग्राम कई शहरों में चल रहे हैं, क्योंकि इन समूहों के ड्रॉपआउट रेट ज्यादा रहे हैं। “My Brother’s Keeper” पहल ओबामा प्रशासन ने शुरू की थी जो स्थानीय स्तर पर जारी है। गर्ल्स कोडिंग कैंप्स और STEM में लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने के प्रयास भी रंग ला रहे हैं – अब हाई स्कूल फर्स्ट रोबोटिक्स या मैथ ओलिम्पियाड में लड़की प्रतिभागी पहले से काफी ज्यादा दिखती हैं। विशेष शिक्षा में समावेशन पर भी जोर है – अधिक से अधिक दिव्यांग छात्र मुख्यधारा कक्षाओं में सहायक सेवाओं के साथ पढ़ें, बजाए पृथक कक्षाओं में अलग-थलग पड़ने के। इसके लिए सह-अध्यापन मॉडल (एक सामान्य शिक्षक और एक विशेष शिक्षक मिलकर कक्षा लें) अपनाया जा रहा है।
6. नीति-स्तर बड़े सुधार: संघीय स्तर पर पिछले एक-डेढ़ दशक में कुछ व्यापक सुधार प्रस्ताव भी आए। जैसे कॉलेज रैंकिंग को सुधारने का सुझाव – ओबामा सरकार चाहती थी कि कॉलेजों को उनके स्नातक दर, प्लेसमेंट, ऋण भार आदि के आधार पर रेट किया जाए ताकि पारदर्शिता बढ़े और संस्थानों पर गुणवत्ता सुधारने का दबाव हो। हालांकि यह योजना पूरी तरह नहीं आ सकी। वर्तमान में फ्री कम्युनिटी कॉलेज मूवमेंट बड़ा बदलाव ला सकता है अगर अधिक राज्यों या संघीय सरकार इसे लागू करें – इससे 2 साल उच्च शिक्षा का रास्ता किफायती हो जाएगा। “No Child Left Behind” के बाद “Every Student Succeeds Act” लाना भी एक सुधार था जिसने नियंत्रण का संतुलन वापस राज्यों की ओर किया और एकाधिक उपायों से स्कूल को आंकने की अनुमति दी (जैसे सिर्फ टेस्ट स्कोर नहीं, बल्कि ग्रेजुएशन दर, छात्र वृद्धि, आदि)।
7. सामुदायिक और parental सहभागिता: कई सुधार समुदाय की मदद से चल रहे हैं। कम्युनिटी स्कूल मॉडल जोर पकड़ रहा है – इसमें स्कूल परिसर में ही स्वास्थ्य क्लिनिक, परामर्श केंद्र, वयस्क शिक्षा क्लास इत्यादि रखे जाते हैं, जिससे स्कूल आस-पास के पूरे समुदाय के लिए संसाधन केंद्र बनता है। यह मॉडल गरीब क्षेत्रों में काफी कारगर हो रहा है, क्योंकि स्कूल में बच्चा और उसके माता-पिता दोनों अपनी ज़रूरत के सेवा पा सकते हैं। माता-पिता की भागीदारी बढ़ाने के लिए स्कूल “ओपन हाउस”, पेरेंट यूनिवर्सिटी (जहां अभिभावकों को बताया जाता है कि घर पर कैसे पढ़ाई में मदद करें), ऑनलाइन पोर्टल (बच्चों की उपस्थिति, ग्रेड, होमवर्क ट्रैक करने के लिए) जैसे माध्यम अपना रहे हैं। शिक्षा शोध बताता है कि जब पैरेंट्स भागीदार बनते हैं तो छात्र के प्रदर्शन में सुधार होता है। इसलिए यह कम खर्च वाला लेकिन प्रभावी सुधार तरीका है जिस पर सभी एकमत हैं।
इन सभी उपायों का उद्देश्य शिक्षा प्रणाली को अधिक कुशल, न्यायसंगत और आधुनिक बनाना है। हालांकि चुनौतियाँ अभी बाकी हैं, पर कई सकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहे हैं। उदाहरणस्वरूप, 2010 के बाद से अमेरिका में हाई स्कूल स्नातक दर रिकॉर्ड ऊँचाई (~85-88%) पर पहुंची है, दर्शाता है कि विद्यालयों ने ड्रॉपआउट रोकने के अच्छे तरीके खोजे हैं। महामारी के बाद, 2022-23 में चौथी कक्षा के NAEP गणित स्कोर में हल्का सुधार दिखा जो इंगित करता है कि रिकवरी उपाय काम कर रहे हैं【45†L173-L181】। राजनीतिक इच्छाशक्ति और निरंतर नवाचार यदि जारी रहे, तो ये समाधान प्रयास आने वाले वर्षों में और रंग ला सकते हैं। जैसा एक कहावत है – शिक्षा में परिवर्तन धीमा होता है, पर जब एक पीढ़ी बेहतर पढ़ जाती है तो राष्ट्र की तस्वीर बदल सकती है। अमेरिका में ये क्रमिक सुधार अंततः उस बड़ी तस्वीर को सकारात्मक दिशा में ले जाने का प्रयास हैं।
अमेरिका न केवल अपने देश में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देता आया है। एक शैक्षिक महाशक्ति होने के नाते, उसकी नीतियाँ, धनराशि और विचारधारा अंतरराष्ट्रीय शिक्षा पर असर डालती हैं। साथ ही, बहुपक्षीय मंचों और साझेदारियों के जरिए अमेरिका वैश्विक शिक्षा लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में भागीदार है।
1. UNESCO और वैश्विक सांस्कृतिक शिक्षा: संयुक्त राज्य अमेरिका युनेस्को (UNESCO) का संस्थापक सदस्य रहा है, जो शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति हेतु संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी है। 1980 के दशक और फिर 2017-2023 के बीच अमेरिका युनेस्को से राजनीतिक कारणों से अलग भी रहा, किंतु 2023 में उसने वापसी का निर्णय लिया । इस पुनः सहभागिता को बहुपक्षवाद में विश्वास के रूप में देखा गया। युनेस्को के माध्यम से अमेरिका ने सार्वभौमिक साक्षरता, शिक्षकों का प्रशिक्षण, विश्व धरोहर स्थलों के संरक्षण जैसी पहलों में योगदान दिया है। युनेस्को के शिक्षा हेतु सतत विकास और ग्लोबल सिटिजनशिप एजुकेशन एजेंडा में अमेरिकी शिक्षाविद भी सम्मिलित हैं, जो अपनी विशेषज्ञता साझा करते हैं। इसके अलावा अमेरिका वार्षिक बजट का एक बड़ा हिस्सा (दशकों तक सबसे बड़ा दानकर्ता) युनेस्को को देता रहा है, जिससे अफ्रीका व एशिया के विकासशील देशों में शैक्षिक परियोजनाएं चलती हैं।
2. UNICEF और शिक्षा सहायता: यूनिसेफ़ (UNICEF), जो विश्व भर में बच्चों के कल्याण और शिक्षा पर काम करता है, को अमेरिका से निरंतर समर्थन मिलता है। अमेरिकी सरकार तथा निजी अमेरिकी फाउंडेशन यूनिसेफ़ के शिक्षा कोष में बड़ी राशि का योगदान करते हैं। उदाहरणार्थ, अमेरिकी अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी (USAID) प्रतिवर्ष विकासशील देशों में बेसिक एजुकेशन के प्रोग्रामों पर सैकड़ों मिलियन डॉलर खर्च करती है। इसमें स्कूल निर्माण, किताबें उपलब्ध कराना, शिक्षकों का प्रशिक्षण और बालिका शिक्षा को बढ़ावा देना शामिल हैं। USAID के शिक्षा कार्यक्रम खास तौर पर अफ्रीका, दक्षिण एशिया (अफगानिस्तान, पाकिस्तान) और लैटिन अमेरिका में सक्रिय हैं, जिन्होंने लाखों नए बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने में मदद की है। अमेरिका विश्व बैंक के ग्लोबल एजुकेशन पार्टनरशिप का भी प्रमुख दाता है। इन वित्तीय योगदानों के साथ-साथ अमेरिकी विशेषज्ञ अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों के विमर्श में भी हिस्सा लेते हैं – जैसे सतत विकास लक्ष्य 4 (SDG4 – गुणवत्तापूर्ण शिक्षा) की प्रगति में। 2015 में अपनाए गए सतत विकास लक्ष्यों में शिक्षा के लिए 2030 तक सभी बच्चों को मुफ़्त प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा, लैंगिक समानता, साक्षरता आदि लक्ष्य रखे गए हैं, जिन्हें पाने में अमेरिका तकनीकी व आर्थिक सहायता से मदद कर रहा है।
3. G20 और द्विपक्षीय मंच: विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मंच G20 में भी शिक्षा एक चर्चा का विषय रहा है। अमेरिका ने G20 देशों के बीच शिक्षा के लिए निवेश बढ़ाने और नीतिगत सहयोग पर जोर दिया है। उदाहरण के लिए, हाल ही में आयोजित G20 शिक्षा मंत्रियों की बैठकों में अमेरिकी प्रतिनिधियों ने भविष्य की कार्यक्षमता (future skills) और डिजिटल शिक्षा को एजेंडा पर रखा। अमेरिका और भारत समेत G20 देशों ने 2020 के नवम्बर वक्तव्य में शिक्षा को पुनर्प्राप्ति (recovery) और सतत विकास के केंद्र में रखने का संकल्प किया था। इसी तरह, G7 जैसे मंचों पर भी अमेरिका ने लड़कियों की शिक्षा, युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में स्कूलों की रक्षा, और शिक्षण में नवाचार को प्रोत्साहित करने हेतु वैश्विक साझेदारियों का आह्वान किया है।
द्विपक्षीय स्तर पर, अमेरिका कई देशों के साथ शैक्षिक सहयोग समझौते रखता है। जापान, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे विकसित देशों के साथ अनुसंधान आदान-प्रदान आम बात है। विकासशील देशों जैसे वियतनाम, केन्या, ब्राजील आदि के साथ भी अमेरिकी शैक्षिक सहायता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान चलते हैं। शिक्षा पर्यटन (education diplomacy) अमेरिकी विदेश नीति का एक नरम पहलू रहा है – Fulbright छात्रवृत्ति, International Visitor Leadership Program जैसी योजनाओं ने दुनिया भर के उभरते नेताओं/छात्रों को अमेरिकी अनुभव दिया है और बदले में अमेरिकी शैक्षणिक समुदाय को बहुसांस्कृतिक लाभ मिला है।
4. वैश्विक ज्ञान उत्पादन में नेतृत्व: दुनिया के शीर्ष अनुसंधान विश्वविद्यालयों और थिंक-टैंकों का केंद्र होने के नाते, अमेरिका शैक्षिक अनुसंधान व नवाचार के माध्यम से भी ग्लोबल एजुकेशन को प्रभावित करता है। शिक्षा मनोविज्ञान, शिक्षाशास्त्र, पाठ्यचर्या विकास, शैक्षिक तकनीक जैसे क्षेत्रों में अमेरिकी विश्वविद्यालयों द्वारा किया गया शोध दुनिया के अन्य देशों द्वारा अपनाया जाता है। उदाहरण के लिए, हावर्ड गार्ड्नर का बहु-बुद्धिमत्ता सिद्धांत, कोलमैन रिपोर्ट (1966) के निष्कर्ष, Bloom’s Taxonomy – ये सभी अमेरिका में जन्मे लेकिन वैश्विक शिक्षा विमर्श का हिस्सा बने हैं। MOOC (Massive Open Online Courses) की क्रांति, जिसकी शुरुआत MIT और हार्वर्ड के edX तथा स्टैनफोर्ड से निकले Coursera प्लेटफ़ॉर्म ने की, ने दुनियाभर में करोड़ों लोगों को ऑनलाइन मुफ्त पाठ्यक्रमों तक पहुंच दी। इस तरह अमेरिका ने ज्ञान को ग्लोबल कॉमन गुड के रूप में बढ़ावा दिया है।
5. सांस्कृतिक आदान-प्रदान और अंतरराष्ट्रीय छात्र: हर वर्ष बड़ी संख्या में अंतरराष्ट्रीय छात्र अमेरिकी विश्वविद्यालयों और स्कूलों में पढ़ने आते हैं (जिनमें भारतीय, चीनी छात्र शीर्ष पर हैं – इस पर अगले अनुभाग में विवरण है)। ये छात्र न केवल अपने लिए उन्नत शिक्षा पाते हैं बल्कि सांस्कृतिक राजदूत के रूप में कार्य करते हैं। अमेरिकी परिसरों में उनकी मौजूदगी से अमेरिकी छात्रों को वैश्विक दृष्टिकोण मिलता है। लौटने पर ये विद्यार्थी अमेरिकी शैक्षणिक पद्धतियों और मूल्यों को अपने देश में फैलाते हैं या कई स्थायी रूप से अमेरिका में रहकर वैश्विक कौशल प्रवाह का हिस्सा बन जाते हैं। इसे ब्रेन सर्कुलेशन भी कहा जाता है, जो किसी एक देश का नहीं बल्कि मानवता का लाभ करता है। अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए अपने दरवाज़े आम तौर पर खुले रखे हैं और इंटरनेशनल एजुकेशन वीक जैसे कार्यक्रमों से इस पारस्परिक समृद्धि को सेलिब्रेट किया जाता है।
6. संकट के समय शैक्षिक मदद: वैश्विक परिदृश्य में जहाँ कहीं शिक्षा पर आपदा आती है – चाहे युद्ध के कारण शरणार्थी संकट हो या महामारी/भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा – अमेरिका मानवीय सहायता प्रदान करने में आगे रहता है। सीरियाई शरणार्थी बच्चों को तुर्की और जॉर्डन में स्कूल उपलब्ध कराने के लिए अमेरिकी कोष से काफी मदद दी गई। Global Partnership for Education जैसी पहल में अमेरिका फंड देकर ऐसे 80 से अधिक विकासशील देशों की सहायता करता है जो संघर्ष या गरीबी से जूझते हुए शिक्षा प्रदान कर रहे हैं।
इन सभी पहलुओं से स्पष्ट है कि वैश्विक शिक्षा पर अमेरिकी छाप गहरी है। कभी-कभी अमेरिकी नीतियों की आलोचना भी होती है – जैसे कुछ लोग कहते हैं कि अमेरिका ने शिक्षा का * बाज़ारीकरण (commercialization)* वैश्विक स्तर पर बढ़ावा दिया है या अंग्रेजी भाषा के प्रसार से स्थानीय भाषाओं को नुकसान होता है। पर समग्रता में देखें तो, अमेरिका ने संसाधन संपन्न देश होने के नाते शिक्षा को मानव विकास का केंद्र बनाकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग किया है। संयुक्त राष्ट्र के 2030 तक सबके लिए शिक्षा के लक्ष्य में अमेरिका की भूमिका एक प्रमुख सहयोगी और पहरेदार दोनों की है। “किसी भी बच्चे को पीछे न छूटने देने” का संकल्प सीमाओं के पार भी लागू करने की जरूरत है, और अमेरिकी नीति निर्माताओं ने संकेत दिए हैं कि वे इसके लिए प्रतिबद्ध हैं।
विश्व के दो बड़े लोकतंत्र – भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका – के बीच शिक्षा एवं ज्ञान के आदान-प्रदान का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है। दोनों देशों को जोड़ने वाले सांस्कृतिक एवं बौद्धिक सेतु में शैक्षणिक सहयोग एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। हाल के वर्षों में यह सहयोग और गहरा हुआ है, विशेषकर भारत की नई शिक्षा नीति और ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था के संदर्भ में। आइए कुछ प्रमुख पहलुओं पर नज़र डालें:
1. फ़ुलब्राइट कार्यक्रम: भारत-अमेरिका शैक्षिक सहयोग की नींव 1950 के दशक में पड़े फ़ुलब्राइट शैक्षिक विनिमय कार्यक्रम से शुरू होती है। Fulbright Program के तहत हर वर्ष दोनों देशों के सैकड़ों प्रतिभाशाली छात्र, शोधकर्ता और अध्यापक एक-दूसरे के देश में जाकर अध्ययन-अध्यापन करते हैं। 2008 में एक समझौते के तहत इस कार्यक्रम का विस्तार कर Fulbright-Nehru Fellowship स्थापित की गई, जो भारतीय प्रतिभागियों पर विशेष ध्यान देती है। अब तक हज़ारों भारतीय और अमेरिकी फ़ेलो एक दूसरे के देश में शिक्षा का अनुभव लेकर वापस लौटे हैं, जिन्होंने शिक्षा, कला, विज्ञान, सार्वजनिक सेवा हर क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किए हैं। ये शैक्षिक राजदूत दोनों देशों की पारस्परिक समझ बढ़ाने में अहम रहे हैं।
2. उच्च शिक्षा और अनुसंधान साझेदारी: 21वीं सदी में भारत और अमेरिका के विश्वविद्यालयों व शोध संस्थानों के बीच सहयोग में तेजी आई है। दोनों देशों के शीर्ष संस्थान अब प्रत्यक्ष साझेदारी, छात्र विनिमय, संयुक्त डिग्री कार्यक्रम और ट्विनिंग अरेंजमेंट पर काम कर रहे हैं। 2023 में भारत-अमेरिका की शिखर बैठक के दौरान एक महत्त्वपूर्ण सहमति बनी – भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) परिषद और अमेरिकी विश्वविद्यालय संघ (Association of American Universities) के बीच एक MoU, जिसके तहत India-US Global Challenges Institute की स्थापना पर काम होगा। इस पहल में आरंभिक $10 मिलियन का संयुक्त निवेश होगा और लक्ष्य है उभरती तकनीकों व वैश्विक चुनौतियों (स्वास्थ्य, स्वच्छ ऊर्जा, कृषि, अर्धचालक, AI आदि) पर संयुक्त अनुसंधान करना। साथ ही, SUNY बफ़ेलो और IIT दिल्ली/कानपुर/जोधपुर/काशी हिंदू विश्वविद्यालय के बीच मल्टी-इंस्टीट्यूशनल जॉइंट रिसर्च सेंटर स्थापित हो रहे हैं, जो अत्याधुनिक क्षेत्रों में मिलकर काम करेंगे। इन साझेदारियों से न केवल शोध में नवाचार होगा बल्कि छात्रों व प्रोफेसरों का आदान-प्रदान भी बढ़ेगा।
3. भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 और तालमेल: भारत ने 2020 में अपनी नई शिक्षा नीति लागू की, जिसमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग और सर्वोत्तम शैक्षिक प्रथाओं के आदान-प्रदान पर बल दिया गया है। NEP 2020 विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में परिसर खोलने की सिफारिश करता है और भारतीय संस्थानों को विदेशी साथियों संग संयुक्त डिग्री, क्रेडिट ट्रांसफर, शोध में सहभागिता हेतु प्रोत्साहित करता है। इसका लाभ उठाते हुए कई प्रमुख अमेरिकी विश्वविद्यालय भारत में अवसर तलाश रहे हैं। आईआईटी कानपुर और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी (NYU) टैंडन स्कूल के बीच उन्नत अनुसंधान केंद्र की स्थापना इसका एक उदाहरण है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ अरिज़ोना, इंडियाना यूनिवर्सिटी आदि ने भारतीय विश्वविद्यालयों से पार्टनरशिप में डिग्री प्रोग्राम शुरू किए हैं जहां छात्र पाठ्यक्रम का हिस्सा भारत में और हिस्सा अमेरिका में कर सकते हैं। NEP द्वारा सुझाया गया अकादमिक क्रेडिट बैंक भी अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट स्वीकार्यता को सरल करेगा। ऐसे में आने वाले समय में और अमेरिकी शिक्षण संस्थान भारत के साथ गठजोड़ करेंगे, जिससे भारतीय छात्रों को विश्वस्तरीय शिक्षा देश में रहते हुए मिल सकेगी और अमेरिका के लिए भी भारत जैसे विशाल प्रतिभा-भंडार से जुड़ाव बढ़ेगा।
4. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में मंच: इंडो-US Science and Technology Forum (IUSSTF) नामक एक महत्वपूर्ण संस्थागत व्यवस्था 2000 में स्थापित की गई थी। यह एक स्वायत्त संगठन है जो भारत और अमेरिका के बीच वैज्ञानिक अनुसंधान सहयोग को बढ़ावा देता है। आईयूएसएसटीएफ के तहत हर वर्ष संयुक्त कार्यशालाएं, अनुसंधान अनुदान, छात्रवृत्तियाँ (जैसे Viterbi Program आईआईटी स्नातकों को USC में शोध अवसर देता है) चलाई जाती हैं। वाहन प्रौद्योगिकी, सौर ऊर्जा, जैव-प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान आदि अनेक क्षेत्रों में संयुक्त कोष से शोध परियोजनाएँ संचालित हैं। 2020 के बाद आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम कम्प्यूटिंग जैसे नए क्षेत्रों पर भी संयुक्त केंद्र बनाए जा रहे हैं। इनसे दोनों देशों को नई खोजों का लाभ मिलता है और विशेषज्ञों का आदान-प्रदान होता है।
5. व्यावसायिक एवं कौशल विकास: कौशल विकास के क्षेत्र में भी सहयोग देखने को मिलता है। कम्युनिटी कॉलेज पहल के तहत कई भारतीय शिक्षा प्रशासक अमेरिका के सामुदायिक कॉलेज मॉडल से सीख रहे हैं, ताकि उसे भारत में अपनाया जा सके। दोनों सरकारों ने मिलकर 21वीं सदी ज्ञान पहल (Singh-Obama Knowledge Initiative) 2009 में चलाई थी, जिसके तहत उच्च शिक्षा में संकाय विकास, पाठ्यक्रम निर्माण आदि पर काम हुआ। अमेरिकी कंपनियां भी भारत में कौशल शिक्षा में मदद कर रही हैं – जैसे IBM, Microsoft ने छात्रों के लिए कोडिंग एवं आईटी स्किल के मुफ्त पाठ्यक्रम चलाए हैं, जो भारत सरकार के कौशल विकास मिशन के अनुरूप हैं।
6. शिक्षा में सांस्कृतिक विनिमय: यूएसIEF (United States-India Educational Foundation) दोनों देशों के बीच शिक्षा एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान को सुव्यवस्थित करता है। फ़ुलब्राइट के अलावा हम्फ्रे फ़ेलोशिप, नेहरू फ़ुलब्राइट विशिष्ट चेयर आदि योजनाओं के माध्यम से विद्वान एक-दूसरे देश में जाकर पढ़ाते और शोध करते हैं। अमेरिकी स्कूलों में हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए भी पहल हुई है – कुछ अमेरिकी स्कूल ज़िलों में अब विदेशी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाई जाती है, जिसमें भारत से गए शिक्षक मदद करते हैं। इसी तरह भारत में अमेरिकन सेंटरों के जरिये अंग्रेजी शिक्षा और शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम चलते हैं।
7. हाल की उच्च-स्तरीय पहल: 2023 में, भारत के प्रधानमंत्री और अमेरिका के राष्ट्रपति ने साझा बयान में शिक्षा में सहयोग को प्राथमिकता देते हुए कई नयी योजनाओं का स्वागत किया। इनमें भारतीय स्किल डेवलपमेंट संस्थानों और अमेरिकी कम्युनिटी कॉलेजों के बीच टाई-अप, आईआईटी और अमेरिकन यूनिवर्सिटीज़ के संयुक्त डिग्री कार्यक्रम, और गगनयान अंतरिक्ष मिशन के लिए भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को USA में प्रशिक्षण जैसी बातें शामिल थीं। ये बहुआयामी पहल संकेत देती हैं कि शिक्षा और क्षमता निर्माण को व्यापक रणनीतिक साझेदारी का हिस्सा माना जा रहा है।
कुल मिलाकर, भारत-अमेरिका शिक्षा सहयोग ज्ञान की साझेदारी का एक उज्ज्वल अध्याय है। इससे दो उद्देश्यों की पूर्ति होती है – एक तो दोनों देशों के मानव संसाधन को मजबूत करना, दूसरे जनता-से-जनता के संपर्क (people-to-people contact) को प्रगाढ़ बनाना। चाहे फ़ुलब्राइट स्कॉलर हो, संयुक्त शोधकर्ता दल हो या भारत में पढ़ रहा कोई अमेरिकी विद्यार्थी – ये सभी मंच भविष्य के लिए दोनों देशों के बीच आपसी सम्मान और समझ की नींव मजबूत कर रहे हैं। वैश्वीकरण के दौर में जहां चुनौतियाँ साझा हैं (जैसे जलवायु परिवर्तन, तकनीकी परिवर्तन), ऐसी शिक्षा साझेदारियाँ सह-समाधान (co-solution) विकसित करने में सहायक होंगी। दोनों देश इस साझेदारी को बढ़ाने हेतु प्रतिबद्ध दिखते हैं, और यह संबंध आने वाले वर्षों में और गहरा होने की संभावना है।
भारतीय छात्र दशकों से उच्च शिक्षा और शोध के लिए अमेरिका का रुख करते रहे हैं। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में आईटी और इंजीनियरिंग में आए उछाल के बाद यह संख्या तेज़ी से बढ़ी, और आज भारतीय विद्यार्थी अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सबसे विशाल अंतरराष्ट्रीय छात्र समूहों में से हैं। इन छात्रों की उपस्थिति ने जहां एक ओर अमेरिकी अकादमिक जगत को समृद्ध किया है, वहीं भारत और अमेरिका के बीच एक जीवंत शैक्षिक-आर्थिक संबंध भी बना है।
संख्यात्मक परिदृश्य: वर्ष 2023-24 में रिकॉर्ड संख्या में भारतीय छात्र अमेरिका आए, यहाँ तक कि चीन को पीछे छोड़कर भारतीय छात्र अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय छात्र आबादी में सबसे ऊपर हो गए। Open Doors रिपोर्ट (IIE) के अनुसार 2023/24 शैक्षिक सत्र में लगभग 3,31,600 भारतीय विद्यार्थी अमेरिकी कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में नामांकित थे, जो पिछले वर्ष से ~23% की भारी वृद्धि दर्शाता है. यह भारत के बढ़ते मध्यम वर्ग, गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा की मांग और अमेरिका के आकर्षक अवसरों का प्रतिफल है। भारतीय छात्र मुख्यतः स्नातकोत्तर (ग्रैजुएट) स्तर पर आते हैं – STEM क्षेत्रों में मास्टर डिग्री या डॉक्टरेट करने – लेकिन हाल के वर्षों में स्नातक (अंडरग्रैजुएट) स्तर और समुदायिक कॉलेजों में भी भारतीय नामांकन बढ़ा है।
शैक्षिक रुचि और प्रदर्शन: भारतीय छात्र समुदाय अपनी मेधा और परिश्रम के लिए जाने जाते हैं। बहुत से भारतीय विद्यार्थी अमेरिकी विश्वविद्यालयों में शोध सहायक, शिक्षण सहायक के रूप में कार्यरत हैं और लैबोरेट्री से लेकर क्लासरूम तक योगदान दे रहे हैं। इंजीनियरिंग, कंप्यूटर विज्ञान, बिजनेस प्रबंधन, फार्मास्यूटिकल साइंसेज़ और गणित ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें भारतीय छात्रों की बड़ी उपस्थिति है। सिलिकॉन वैली की कंपनियों और शोध संस्थानों में भारतीय छात्रों/एलुमनाइ का जाल व्यापक है। कई विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्र संघ सक्रिय हैं, जो सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं (जैसे दिवाली समारोह, बॉलीवुड नाइट इत्यादि) और नए छात्रों को मेंटरिंग व सहायता देते हैं। शैक्षणिक प्रदर्शन की बात करें तो, भारतीय विद्यार्थी अक्सर अपने बैच में शीर्ष स्थानों पर दिखाई देते हैं – यह उनकी मजबूत बुनियाद (खासकर गणित एवं विज्ञान में) और मेहनती स्वभाव को दर्शाता है।
अवसर और लाभ: भारतीय छात्रों के अमेरिका आने से दोनों देशों को लाभ मिलता है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों को मेधावी छात्र मिलते हैं जो शोध उत्पादन में मदद करते हैं और विविधता लाते हैं। अंतरराष्ट्रीय छात्रों से मिलने वाली ट्यूशन फीस भी कई संस्थानों के वित्त का अहम हिस्सा है (क्योंकि अंतरराष्ट्रीय छात्रों से प्रायः आउट-ऑफ़-स्टेट या अधिक फीस ली जाती है)। अनुमान है कि भारतीय और अन्य विदेशी छात्र अमेरिकी अर्थव्यवस्था में प्रतिवर्ष अरबों डॉलर का योगदान खर्चों के माध्यम से करते हैं। भारत के लिए, इन छात्रों के अनुभव देश के काम आता है – कुछ शिक्षा पूरी कर देश लौटकर उद्योग, शिक्षा या प्रशासन में अहम योगदान देते हैं (उदाहरण: आईआईटी के कई प्रोफ़ेसर अमेरिका से PhD लेकर लौटे हुए हैं, या अनेक उद्यमी अमेरिका में पढ़कर स्वदेश आए और स्टार्टअप शुरू किए)। जो छात्र अमेरिका में रुक जाते हैं, वे एक सशक्त प्रवासी समुदाय बनाते हैं। भारतीय-अमेरिकी समुदाय आज अमेरिकी समाज में उच्च शिक्षा प्राप्त सफल समूहों में गिना जाता है – अनेक सीईओ (Google के सुंदर पिचाई, Microsoft के सत्य नडेला आदि), वैज्ञानिक, शिक्षाविद भारतीय मूल के हैं जिन्होंने कभी भारतीय शिक्षा प्रणाली और फिर अमेरिकी शिक्षा प्रणाली दोनों का लाभ उठाया।
चुनौतियाँ: हालाँकि अमेरिकी शिक्षा भारतीय छात्रों को लुभाती है, रास्ते में कुछ बाधाएं भी आती हैं। प्रमुख चुनौती है आर्थिक लागत – डॉलर में ट्यूशन और जीवन-यापन खर्च भारतीय रुपए में बहुत महंगा पड़ सकता है। अधिकतर छात्र आंशिक या पूर्ण स्कॉलरशिप/असिस्टेंटशिप की तलाश में रहते हैं, पर सभी को यह मिलना कठिन होता है, विशेषकर स्नातक स्तर पर जहां स्कॉलरशिप कम मिलती हैं। कई भारतीय परिवार बड़ी पूंजी लगा कर या शिक्षा ऋण लेकर बच्चों को अमेरिका भेजते हैं। इसके अतिरिक्त वीज़ा और आप्रवासन की चुनौतियाँ हैं: अमेरिकी F-1 छात्र वीज़ा प्राप्त करना एक प्रक्रिया है, जिसमें कई बार साक्षात्कार में वीज़ा अस्वीकृत भी हो जाता है। पढ़ाई पूरी करने के बाद, अमेरिका में काम का अनुभव लेने हेतु भारतीय छात्र आमतौर पर OPT (Optional Practical Training) और फिर H-1B वर्क वीज़ा पर निर्भर करते हैं। H-1B वीज़ा की संख्या सीमित व लॉटरी-आधारित होने से सबको नहीं मिल पाती, जिससे कुछ उच्च शिक्षित विद्यार्थियों को वापस लौटना पड़ता है या अन्य रास्ते तलाशने होते हैं। अमेरिकी इमिग्रेशन नीति में सुधार न होना (जैसे ग्रीन कार्ड बैकलॉग की समस्या) भी एक चिंता है – भारतीय पेशेवरों को स्थायी निवास मिलने में दशकों लग सकते हैं, जिससे अनिश्चितता रहती है।
इसके अलावा सांस्कृतिक समायोजन (culture shock) भी शुरुआती दौर में चुनौती हो सकती है। भारतीय छात्र एक अलग शैक्षिक संस्कृति में आते हैं जहाँ संवादमूलक कक्षाओं, आलोचनात्मक लेखन और अनुसंधान नैतिकता पर ज़ोर होता है – हालाँकि अधिकतर भारतीय छात्र जल्दी ही ढल जाते हैं और खुलकर इनका लाभ लेते हैं। सामाजिक स्तर पर, भोजन, मौसम, उच्चारण आदि में भिन्नता से जूझते हुए दोस्ती व नेटवर्क बनाना कुछ समय ले सकता है। कई अमेरिकी परिसर अब अंतर्राष्ट्रीय छात्रों के लिए ओरिएंटेशन व समर्पित परामर्श प्रदान करते हैं जिससे यह बदलाव आसान बने।
प्रवासी प्रभाव: भारतीय छात्रों का सफल करियर बनाना दोनों देशों के बीच आर्थिक-तकनीकी सहयोग को भी बढ़ाता है। अनेक पूर्व छात्र अमेरिका-भारत व्यावसायिक एवं शैक्षिक पहल में अहम भूमिका निभाते हैं। सिलिकॉन वैली में भारतीय पूर्व छात्रों ने TiE (The Indus Entrepreneurs) जैसे नेटवर्क बनाकर भारत में स्टार्टअप को मेंटरशिप व निवेश दिया है। इसी तरह, यूएस इंडिया बिज़नेस काउंसिल, विभिन्न एलुमनाइ संघ भारत में शाखाएँ खोलकर सहयोग को मजबूत करते हैं।
भविष्य के रुझान: COVID-19 के दौरान अंतरराष्ट्रीय नामांकन कम हुए थे, लेकिन भारत से संख्या वापस तेज़ी से उछली है। इंजीनियरिंग और कंप्यूटर साइंस अभी भी पसंदीदा क्षेत्र हैं, पर अब डेटा साइंस, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बिज़नेस एनालिटिक्स, पब्लिक पॉलिसी, जैव-प्रौद्योगिकी जैसे आधुनिक क्षेत्रों में भी भारतीय छात्रों की पकड़ बढ़ रही है। अमेरिकी संस्थान भी भारतीय छात्रों को आकर्षित करने के लिए सक्रिय हो रहे हैं – कई विश्वविद्यालय भारत में शैक्षिक मेले (Education Fairs) आयोजित कर रहे हैं, आवेदन शुल्क छूट दे रहे हैं, और कुछ ने भारत में प्रतिनिधि ऑफिस तक खोल दिए हैं।
सारांशतः, अमेरिका में भारतीय छात्रों की उपस्थिति दोनों देशों के बीच मानव संसाधन और ज्ञान के प्रवाह का अहम हिस्सा है। ये छात्र शैक्षिक दूत भी हैं और भविष्य के संभावित नेताओं का समूह भी। उनके द्वारा अर्जित कौशल और संपर्क विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की स्थिति मजबूत करने में सहायक होते हैं। चुनौतियाँ होते हुए भी, “अमेरिकन ड्रीम” भारतीय विद्यार्थियों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में आकर्षण बनाए हुए है – और बढ़ती संख्या इंगित करती है कि यह प्रवाह आने वाले समय में जारी रहेगा।
भारतीय सभ्यता की प्राचीन विद्या – विशेषकर योग और आयुर्वेद – ने पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में उत्सुकता और सम्मान अर्जित किया है। अमेरिका भी इससे अछूता नहीं है। स्वास्थ्य और कल्याण के प्रति बढ़ते झुकाव के बीच अमेरिकी शैक्षणिक एवं सार्वजनिक संस्थानों ने योग आदि को अपनाना शुरू किया है। इस सेक्शन में हम देखेंगे कि अमेरिकी शिक्षा (स्कूलों और विश्वविद्यालयों) में योग, आयुर्वेद, ध्यान जैसे तत्वों की क्या स्थिति है और उनकी क्या संभावनाएं हैं।
1. स्कूलों में योग एवं ध्यान: योग (Yoga) को अब विश्व भर में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्वीकार किया जा चुका है कि यह तनाव घटाने, एकाग्रता बढ़ाने और शारीरिक फिटनेस में सहायक है। अमेरिका के कई प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूल पिछले एक-डेढ़ दशक से योग को अपने शारीरिक शिक्षा या सोशल-इमोशनल लर्निंग (SEL) कार्यक्रम का हिस्सा बना रहे हैं। उदाहरण के लिए, लॉस एंजिलिस, न्यूयॉर्क, डलास जैसे बड़े ज़िलों में चयनित स्कूलों में “Mindful Monday” या “Yoga break” सत्र होते हैं जहाँ प्रशिक्षित शिक्षक बच्चों को सरल योगासन (जैसे वृक्षासन, ताड़ासन) और सूर्य नमस्कार सीक्वेंस, साथ ही ध्यान (Meditation) और श्वास व्यायाम करवाते हैं। शोध से पता चला है कि इससे छात्रों में अनुशासन सुधार, आक्रामकता में कमी और एकाग्रता में वृद्धि देखी गई। नेशनल एसोसिएशन ऑफ सेकंडरी प्रिंसिपल्स के एक लेख में दो विशेषज्ञ बताते हैं कि योग अभ्यास कक्षा में छात्रों का ध्यान बढ़ाने, परीक्षाओं के तनाव को कम करने तथा आपसी संघर्ष को हल करने में मददगार है। कुछ स्कूल तो दिन की शुरुआत पांच मिनट के ध्यान से करवाते हैं, जिससे विद्यार्थी शांत मन से पढ़ाई शुरू करें। सूर्य नमस्कार विशेष रूप से एक लोकप्रिय क्रम है क्योंकि इसमें शरीर की अच्छी स्ट्रेचिंग और वॉर्म-अप हो जाती है – कई स्कूलों ने इसे मॉर्निंग पीई (PE) रूटीन के रूप में अपनाया है।
हालांकि इस प्रवृत्ति को सभी जगह खुले दिल से स्वीकार नहीं किया गया – कुछ समुदायों में योग को धार्मिक क्रिया समझकर प्रारंभ में विरोध भी हुआ कि इससे धार्मिक तटस्थता भंग होती है। लेकिन विद्यालय प्रबंधनों ने योग को पूरी तरह गैर-धार्मिक माइंड-फिटनेस एक्टिविटी के रूप में प्रस्तुत किया है, बिल्कुल वैसे ही जैसे ताई-ची या मार्शल आर्ट्स सिखाए जाते हैं। अब धीरे-धीरे ये आपत्तियाँ कम हुई हैं और योग का लाभ कई स्कूलों में समझा जाने लगा है। विश्व योग दिवस (21 जून) पर तो कई अमेरिकी स्कूल विशेष आयोजन भी करते हैं, जहाँ बच्चे मिलकर योगाभ्यास करते हैं और भारतीय संस्कृति की इस विरासत से परिचित होते हैं।
2. विश्वविद्यालयों में योग और आयुर्वेद: विश्वविद्यालय स्तर पर योग सिर्फ जिम या स्वास्थ्य केंद्रों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि एक शैक्षणिक विषय के रूप में भी उभरा है। कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों (हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड, यूसीएलए आदि) में योग के विज्ञान पर पाठ्यक्रम चल रहे हैं – जैसे “Yoga and Mindfulness”, “History and Practice of Yoga” इत्यादि, जिनमें छात्र न केवल व्यावहारिक योग सीखते हैं बल्कि इसके दार्शनिक आधार और मानव शरीर पर प्रभाव का अध्ययन करते हैं। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में योग एवं ध्यान पर अनुसंधान हुए हैं, जिनमें पाया गया कि नियमित योगाभ्यास तनाव हार्मोन Cortisol को कम करता है और मनोदैहिक स्वास्थ्य सुधारता है। इन शोधों के प्रकाशित होने से योग की स्वीकार्यता अकादमिक और चिकित्सीय समुदाय में बढ़ी है। कैलिफ़ोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कॉन्सिन ने तो योगा स्टडीज़ में प्रमाणपत्र (Certificate) कोर्स शुरू किए हैं।
आयुर्वेद की बात करें तो, यह मुख्यतः पारंपरिक भारतीय चिकित्सा प्रणाली है। अमेरिका में आयुर्वेद को वैकल्पिक चिकित्सा (alternative medicine) के एक रूप में देखा जाता है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) के अंतर्गत National Center for Complementary and Integrative Health आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों और सिद्धांतों पर शोध भी करता है। कुछ आयुर्वेदिक संस्थान (जैसे आयुर्वेद हॉलिस्टिक स्कूल्स)...(पिछले अनुभाग से जारी)...
आयुर्वेद और पारंपरिक ज्ञान: आयुर्वेद, जो प्राचीन भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धति है, अमेरिकी शैक्षिक परिदृश्य में अपेक्षाकृत नया प्रवेश है। मुख्यधारा के मेडिकल स्कूलों में आयुर्वेद पढ़ाया जाना अभी सीमित है, लेकिन इंटीग्रेटिव मेडिसिन के बढ़ते चलन के कारण कुछ विश्वविद्यालय इस ओर ध्यान दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, एरिज़ोना यूनिवर्सिटी के डॉ. एंड्रयू वील केंद्र में आयुर्वेदिक हर्बल चिकित्सा पर शोध और प्रशिक्षण दिया जाता है। कई प्राकृतिक चिकित्सा (Naturopathy) विद्यालय आयुर्वेदिक पोषण और जड़ी-बूटी विज्ञान को पाठ्यक्रम में शामिल कर रहे हैं। स्वयं अमेरिका में कुछ संस्थान (जैसे केरल आयुर्वेद अकादमी) आयुर्वेद प्रमाणीकरण कोर्स चलाते हैं, हालांकि ये अकादमिक क्रेडिट प्रणाली का हिस्सा नहीं बल्कि स्वतंत्र सर्टिफिकेट प्रोग्राम होते हैं। आयुर्वेद के सिद्धांत – जैसे दोष संतुलन, प्राकृतिक उपचार, योग एवं ध्यान के संयोजन – को आधुनिक वैलनेस इंडस्ट्री ने हाथोंहाथ लिया है। अमेरिका में कई योग और ध्यान केंद्र अब आयुर्वेदिक डिटॉक्स (पंचकर्म), आहार परामर्श और हर्बल उत्पादों की पेशकश करते हैं। कुछ चिकित्सा छात्रों को ऐच्छिक रूप (elective) में आयुर्वेद का परिचय दिया जाता है ताकि वे एक समग्र दृष्टिकोण समझ सकें।
संभावनाएँ: भारतीय सरकार तथा प्रवासी समुदाय ने अमेरिकी शिक्षा में भारतीय विद्या के प्रसार में भूमिका निभाई है – हर साल 21 जून को विश्व योग दिवस पर भारतीय वाणिज्य दूतावासों के सहयोग से सैकड़ों अमेरिकी स्कूलों-कॉलेजों में योग कार्यशालाएँ आयोजित होती हैं। भविष्य में, योग एवं ध्यान को और विद्यालयों में विस्तारित करने की पूरी संभावना है क्योंकि इसके लाभ के समर्थन में सैकड़ों शोध प्रकाशित हो चुके हैं और एक सर्वे के मुताबिक लगभग 1,000 अमेरिकी स्कूल योग कार्यक्रम चला रहे हैं तथा हर साल इनकी संख्या बढ़ रही है। आयुर्वेद को भी अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ शोध के दायरे में लाया जा रहा है; यदि इसका वैज्ञानिक आधार दृढ़ होता गया तो संभव है कि इंटीग्रेटिव हेल्थ पाठ्यक्रमों में आयुर्वेदिक पोषण एवं जीवनशैली औषधि पढ़ाई जाए। कुल मिलाकर, भारतीय योग-आयुर्वेद अमेरिका में वैकल्पिक से मुख्यधारा की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, खासकर शिक्षा जगत में स्वास्थ्यकर जीवनशैली को बढ़ावा देने की चर्चा के बीच। इस तरह अमेरिकी शिक्षा में भी धीरे-धीरे पूर्व और पश्चिम का संगम दिखने लगा है, जहां आधुनिक विज्ञान के साथ-साथ प्राचीन ज्ञान से भी सीखा जा रहा है।
अमेरिकी शिक्षा का भविष्य उन नवाचारों पर निर्भर है जो आज आकार ले रहे हैं। तकनीक, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI), और दूरदर्शी नेताओं की पहलें स्कूलों और विश्वविद्यालयों के रूप-रंग को बदलने की क्षमता रखती हैं। आने वाले समय में शिक्षा कैसी दिखेगी, इसे समझने के लिए वर्तमान प्रवृत्तियों और कुछ अग्रणी व्यक्तित्वों की सोच पर नज़र डालना उपयोगी होगा।
1. शिक्षा में AI एवं व्यक्तिगत अधिगम: निकट भविष्य में कक्षाओं में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) एक सह-अध्यापक की भूमिका निभा सकती है। इंटेलिजेंट ट्यूटरिंग सिस्टम्स छात्रों के उत्तर और पैटर्न का विश्लेषण कर तुरंत फीडबैक देंगे, कमज़ोरियों की पहचान कर उपयुक्त अभ्यास सुझाएंगे। उदाहरण के लिए, अगर किसी छात्र को बीजगणित के एक प्रकार के सवाल में दिक्कत आ रही है तो AI-आधारित ऐप तुरंत उस कौशल को फिर से समझाने वाले पाठ मुहैया करा सकते हैं। इससे हर विद्यार्थी को व्यक्तिगत रफ़्तार और तरीके से सीखने का मौका मिलेगा। डेटा एनालिटिक्स भी शिक्षा में बड़ा रोल निभाएगी – छात्रों की प्रगति का विशाल डेटा शिक्षकों को बताएगा कि कौन-से अध्याय में पूरी कक्षा को दोबारा मदद चाहिए, या कौन-से छात्र गुपचुप जूझ रहे हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ज़रिए अनुवाद सुविधा भी बढ़ेगी – भविष्य की कक्षाओं में भाषा बाधा कम हो सकती है, उदाहरणार्थ कोई विज्ञान का पाठ अंग्रेज़ी में है तोリReal Time (रियल टाइम अनुवाद) से अन्य भाषा में उपलब्ध हो सकेगा। यह विशेष रूप से बहुभाषी समाजों में लाभदायक होगा।
2. वर्चुअल और ऑगमेंटेड रियलिटी: वर्चुअल रियलिटी (VR) और ऑगमेंटेड रियलिटी (AR) से कक्षा की भौतिक सीमाएं टूट रही हैं। आने वाले वर्षों में छात्र VR हेडसेट लगाकर इतिहास की कक्षा में खुद को प्राचीन रोम के बीच महसूस करेंगे, या जीव विज्ञान में मानव हृदय के भीतर सूक्ष्म स्तर पर घूम सकेंगे। AR की मदद से प्रयोगशालाओं में जोखिम भरे प्रयोग भी सुरक्षित रूप से आभासी रूप में किए जा सकेंगे। इससे शिक्षा अधिक इमर्सिव और व्यावहारिक हो जाएगी। अमेरिका में कुछ स्कूल अभी से VR लैब स्थापित कर रहे हैं और माइक्रोसॉफ्ट होलो Lens जैसे उपकरण उच्च शिक्षा में इस्तेमाल हो रहे हैं (जैसे मेडिकल स्टूडेंट्स 3D होलोग्राम से एनाटॉमी सीख रहे हैं)। अगले दशक में इन तकनीकों के और किफायती व सर्वसुलभ होने की उम्मीद है, जिससे कहीं भी, कभी भी सीखना वाकई संभव होगा।
3. एलन मस्क और ‘भविष्य के स्कूल’: टेक उद्यमी एलन मस्क जैसे अगुवा परंपरागत शिक्षा को चुनौती दे रहे हैं। उन्होंने मौजूदा स्कूल सिस्टम को "obsolete" कहा है और डिग्री-प्राप्ति पर अत्यधिक जोर को कटाक्ष करते हुए कहा: "आपको सीखने के लिए कॉलेज की ज़रूरत नहीं है। लगभग सबकुछ मुफ्त में उपलब्ध है... कॉलेज असल में मज़े करने और यह साबित करने के लिए हैं कि आप अपना काम समय पर कर सकते हैं"। मस्क ने 2014 में कैलिफ़ोर्निया में अपने संस्थान SpaceX में अपने कर्मचारियों और अन्य के बच्चों के लिए एक अभिनव स्कूल Ad Astra की स्थापना की। इस स्कूल में कोई निर्धारित कक्षा-स्तर या पारंपरिक ग्रेडिंग नहीं थी, और पाठ्यक्रम बच्चों की रुचि के अनुसार विकसित होता था – रोबोटिक्स, विज्ञान, इंजीनियरिंग, गणित पर केंद्रित प्रोजेक्ट चलते थे, परन्तु संगीत या विदेशी भाषा जैसे विषय औपचारिक रूप से नहीं पढ़ाए जाते थे। बच्चों को समस्याएँ देकर सुलझाने को कहा जाता था, न कि अलग-अलग विषयों के सिलोज़ में बांटकर पढ़ाया जाता था। यह प्रयोग काफी सफल माना गया और बाद में Astra Nova नाम से इसे ऑनलाइन वैश्विक विद्यालय के रूप में विस्तारित किया गया। एलन मस्क की दृष्टि में स्कूल ऐसा होना चाहिए जो रूचि व कौतूहल (curiosity) को जिंदा रखे और छात्र व्यावहारिक रूप से सीखें न कि केवल रटकर परीक्षा पास करें।
एलन मस्क जैसा नजरिया अन्य तकनीकी नेताओं में भी दिखता है। मार्क ज़करबर्ग ने कुछ वर्ष पहले “चरम व्यक्तिगत शिक्षा” (radical personalization) की वकालत की और Summit Learning जैसे प्लेटफ़ॉर्म को सहयोग दिया जो AI का उपयोग कर प्रत्येक छात्र के लिए अलग सीखने का मार्ग बनाता है। बिल गेट्स शिक्षा में डेटा और टेक्नोलॉजी के उपयोग के बड़े समर्थक रहे हैं तथा उन्होंने शिक्षक प्रशिक्षण और पाठ्यक्रम विकास पर अरबों डॉलर का निवेश फाउंडेशन के माध्यम से किया है। जेफ़ बेज़ोस ने 2020 में Bezos Academy नाम से कई मुफ्त प्रीस्कूल खोलने शुरू किए हैं, जो मोंटेसरी पद्धति पर आधारित हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि सिलिकॉन वैली शिक्षा-क्रांति का अगुवा बन रहा है – चाहे वह नए स्कूल खोलकर हो या मौजूद स्कूलों को तकनीक से सशक्त बनाकर।
4. अनुसंधान एवं नवाचार का स्थान: भविष्य की शिक्षा में शोध-आधारित सुधार महत्वपूर्ण होंगे। शिक्षाशास्त्र के क्षेत्र में लगातार नयी खोजें हो रही हैं – जैसे Neurology (तंत्रिका विज्ञान) से हमें पता चल रहा है कि मस्तिष्क किस प्रकार सीखता है, स्मृतियाँ कैसे बनती हैं, और ध्यान भटकने के कारण क्या हैं। इन जानकारियों के आधार पर पाठ पढ़ाने के तरीके बदले जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, ब्रेक देकर पढ़ाने (spaced learning) की तकनीक, मिश्रित विषयों को समेकित कर पढ़ाना (interleaving), तथा परीक्षण को ही सीखने का उपकरण बनाना (retrieval practice) – ये सब विज्ञान द्वारा समर्थित रणनीतियाँ अब कक्षाओं में अपनाई जा रही हैं। अमेरिका में कई स्कूल ज़िले इन साक्ष्य-आधारित तरीकों को अपने शिक्षकों के पेशेवर विकास कार्यक्रम में शामिल कर रहे हैं।
इसके अलावा, इनोवेशन हब और लैब स्कूल (Lab Schools) की संख्या बढ़ रही है, जो भविष्य के स्कूलों के मॉडल आज़मा रहे हैं। इनमें फ्लिप्ड क्लासरूम, 4-दिवसीय स्कूल सप्ताह, मल्टी-एज क्लासरूम, इत्यादि विचारों के साथ प्रयोग होते हैं। कुछ स्कूल ग्रीष्मकालीन ब्रेक को कई छोटे-छोटे ब्रेक में पुनर्वितरित करके साल भर स्कूल (year-round schooling) का मॉडल भी परख रहे हैं, ताकि लंबी छुट्टी से सीखने का नुकसान न हो। स्पेस एजुकेशन भी एक नया क्षितिज है – SpaceX और नासा के कार्यक्रम मिलकर छात्रों को रॉकेट्री, कोडिंग और ग्रह विज्ञान सिखा रहे हैं। भविष्य में चंद्रमा और मंगल अभियानों के मद्देनज़र, संभव है स्कूली पाठ्यक्रम में अंतरिक्ष विज्ञान तथा खगोल जीवविज्ञान जैसी विधाओं का प्रवेश हो जाए।
5. व्यापक दृष्टिकोण – शिक्षा का ध्येय: आने वाले समय में शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी या डिग्री तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि आजीवन सीखना (Lifelong Learning) एक नया मानक बनेगा। तेज़ी से बदलती अर्थव्यवस्था में, अमेरिकी व्यवस्था पहले से ही वयस्क शिक्षा, ऑन-द-जॉब ट्रेनिंग, माइक्रो-क्रेडेंशियल्स पर शिफ्ट हो रही है। यह रुझान भविष्य में और तेज़ होगा – विश्वविद्यालय भी चार साल के कोर्स के बाद अपने छात्रों से नाता नहीं तोड़ेंगे, बल्कि समय-समय पर अपस्किलिंग कोर्स ऑफर करेंगे। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे क्षेत्र में नैतिकता, मानवीय मूल्य और रचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करना भी शिक्षा का अहम लक्ष्य होगा, ताकि इंसान और मशीन का समन्वय सकारात्मक दिशा में हो।
संक्षेप में, भविष्य का स्कूल तकनीक-संपृक्त, शोध-निर्देशित, और व्यक्तिगत अनुकूलित होगा। कक्षा की परिभाषा भौतिक सीमाओं से मुक्त होगी। शिक्षकों की भूमिका कंटेंट देने से बदलकर एक फ़ैसिलिटेटर और प्रेरक की होगी, जो छात्रों को सही संसाधन, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन देंगे। बेशक, इन परिवर्तनों के साथ यह ध्यान रखना भी ज़रूरी होगा कि शिक्षा मानवीय स्पर्श से वंचित न हो – चरित्र-निर्माण, नैतिक शिक्षा, सामाजिक कौशल जैसी चीज़ें किसी भी मशीन या तकनीक से नहीं सीखी जा सकतीं, इसके लिए गुरु-शिष्य का संबंध और वास्तविक दुनिया के अनुभव ही काम आएंगे। इस संतुलन को साधते हुए, अमेरिकी शिक्षा नीति और नवाचारकर्ता मिलकर प्रयास कर रहे हैं कि आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा प्रणाली प्रासंगिक और सशक्त बनी रहे।
अमेरिका के प्रमुख विश्वविद्यालय न सिर्फ अपने उत्कृष्ट शैक्षिक मानकों और अनुसंधान के लिए जाने जाते हैं, बल्कि भारतीय छात्रों एवं वैश्विक प्रतिभा के लिए अवसरों के द्वार भी खोले हुए हैं। हार्वर्ड, एमआईटी, स्टैनफोर्ड, कैलटेक, येल, प्रिंसटन, कोलंबिया, पेनसिल्वेनिया, शिकागो, जॉन्स हॉपकिन्स जैसे विश्वविद्यालय अक्सर विश्व-रैंकिंग में शीर्ष 20 में रहते हैं। इन संस्थानों ने आधुनिक विज्ञान, तकनीकी आविष्कारों और विचारधाराओं के प्रसार में अप्रतिम योगदान दिया है। साथ ही, इन्होंने ऐसे स्नातक और विद्वान तैयार किए हैं जो दुनिया भर में नेतृत्वकारी भूमिकाओं में हैं, जिनमें कई प्रवासी भारतीय या भारतीय मूल के व्यक्ति भी शामिल हैं।
उदाहरणस्वरूप, हार्वर्ड विश्वविद्यालय – जिसे अक्सर दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय माना जाता है – के पूर्व भारतीय छात्र अनेक क्षेत्रों में अग्रणी हैं (जैसे नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने हार्वर्ड में शोध एवं अध्यापन किया, पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने हार्वर्ड से लॉ किया)। MIT (मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी), जिसे इंजीनियरिंग और तकनीकी अनुसंधान का मक्का कहा जाता है, नियमित रूप से वैश्विक सूची में नंबर 1 आता है; इसके भारतीय एलुमनाइ में इंफ़ोसिस के सह-संस्थापक एन. आर. नारायण मूर्ति शामिल हैं और अनेकों भारतीय वैज्ञानिक-प्रोफ़ेसर यहाँ कार्यरत हैं। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी सिलिकॉन वैली के दिल में बसी है और Google, Yahoo जैसे स्टार्टअप यहीं से निकले – भारतीय मूल के वरिष्ठ उद्यमी विनोद खोसला (सुन माइक्रोसिस्टम्स के सह-संस्थापक) स्टैनफोर्ड के पूर्व छात्र हैं और मौजूदा Google CEO सुंदर पिचाई ने भी स्टैनफोर्ड में उच्च शिक्षा पाई। इसी तरह, यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया (वॉर्टन) से इंड्रा नूई (पूर्व PepsiCo CEO) जैसी भारतीय मूल की विशिष्ट हस्तियों ने MBA किया।
इन विश्वविद्यालयों का भारतीय छात्रों के प्रति योगदान कई स्तरों पर है। एक तो वे बड़ी संख्या में भारतीय विद्यार्थियों को प्रवेश एवं छात्रवृत्ति प्रदान करते हैं, जिससे वे विश्वस्तरीय शिक्षा हासिल कर पाते हैं। कई शीर्ष अमेरिकी विश्वविद्यालय योग्य अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए ज़बरदस्त आर्थिक सहायता देते हैं – उदाहरणतः हार्वर्ड, एमआईटी, प्रिंसटन वित्तीय आवश्यकता के आधार पर पूर्ण स्कॉलरशिप तक प्रदान करते हैं, जिससे मध्यमवर्गीय भारतीय छात्र भी पहुंच बना सकें। कुछ ने भारतीय छात्रों के लिए विशिष्ट छात्रवृत्तियाँ स्थापित की हैं: जैसे स्टैनफोर्ड में रिलायंस फेलोशिप भारतीय MBA छात्रों को मिलती है, चिकागो बूथ में टाटा स्कॉलरशिप है। दूसरे, ये संस्थान भारत के साथ शैक्षिक गठजोड़ करते हैं – हार्वर्ड का साउथ एशिया संस्थान भारत में स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों पर कार्यक्रम चलाता है; MIT Tata Center भारत की समस्याओं (ऊर्जा, स्वास्थ्य) पर अनुसंधान के लिए स्थापित हुआ था; Carnegie Mellon University ने तेलंगाना में एक शोध केंद्र खोला है। इन पहलों से भारतीय विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं को अपने देश की परिस्थितियों पर काम करने का मौका मिलता है और संयुक्त परियोजनाओं द्वारा ज्ञान का आदान-प्रदान होता है।
इसके अतिरिक्त, शीर्ष अमेरिकी विश्वविद्यालयों के एलुमनाइ नेटवर्क भारत में बहुत सक्रिय हैं। वे भारत में उद्यमिता को मेंटर करते हैं, परोपकारी कार्यों में जुटे हैं (जैसे पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के भारतीय पूर्व छात्रों ने अपनी अल्मा मेटर के लिए बड़ी राशि जुटाकर पुणे में एक अत्याधुनिक अस्पताल की स्थापना करवाई है) और भारतीय शिक्षा को सुधारने में भी हाथ बंटाते हैं। कई आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान अमेरिकी विश्वविद्यालयों के पूर्व छात्रों के साथ मिलकर कॉन्फ्रेंस आयोजित करते हैं जिससे फैकल्टी व छात्र लाभान्वित हों।
संक्षेप में, अमेरिका के अग्रणी विश्वविद्यालय वैश्विक रैंकिंग में शीर्ष पर रहकर ज्ञान उत्पादन का केंद्र तो हैं ही, साथ ही वे भारतीय प्रतिभा को निखारने और भारत-अमेरिका बौद्धिक सेतु को मजबूत करने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं। भारतीय छात्रों के लिए इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करना जीवनपर्यंत एक मूल्यवान संपदा साबित होती है, और इन संस्थानों को भी भारतीय छात्रों व विद्वानों से अकादमिक श्रेष्ठता कायम रखने में मदद मिलती है – यह परस्पर लाभ का संबंध है। आने वाले समय में, भारत और अमेरिका के विश्वविद्यालयों के बीच सहयोग और आदान-प्रदान और बढ़ने की उम्मीद है, जिससे दोनों देशों के शिक्षा जगत को लाभ होगा।
अमेरिकी शिक्षा प्रणाली का यह विस्तृत परिदृश्य हमें इसके इतिहास, संरचना, सफलताओं और चुनौतियों का बहुमुखी चित्र दिखाता है। इस प्रणाली ने आज़ादी के बाद एक लंबा सफर तय किया – औपनिवेशिक एक कक्षीय स्कूलों से लेकर आधुनिक डिजिटल कक्षाओं तक – और खुद को समयानुसार ढाला है। आज यह प्रणाली विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों, सर्वव्यापी स्कूली शिक्षा, और शिक्षा में नवाचार की अगुवा के रूप में पहचानी जाती है। लेकिन साथ ही, यह गहरी असमानताओं, नीतिगत खामियों और नित नई चुनौतियों से भी जूझ रही है, जिनसे निपटने के लिए सतत सुधार प्रयास जारी हैं।
इस विश्लेषण से कई नीति-स्तर के सबक उभरते हैं। पहला, एक देश जितना शिक्षा में निवेश करता है और समानता सुनिश्चित करता है, उतना ही उसका सामाजिक-आर्थिक ताना-बाना मजबूत होता है – शिक्षा सचमुच “समाज का महान तुल्यकारक” बन सकती है, बशर्ते कि सभी तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पहुंचे। दूसरा, विकेंद्रीकरण समुदाय की भागीदारी बढ़ाता है पर न्यूनतम मानकों के लिए केंद्र/राज्य समन्वय भी ज़रूरी है; अमेरिकी अनुभव बताता है कि स्थानीय नियंत्रण और राष्ट्रीय स्तर जवाबदेही में संतुलन बैठाना अत्यावश्यक है। तीसरा, सिर्फ भवन और पाठ्यक्रम बना देना पर्याप्त नहीं – शिक्षकों में निवेश (प्रशिक्षण, वेतन, प्रोत्साहन) सफलता की कुँजी है, क्योंकि वही परिवर्तन के वाहक हैं। चौथा, छात्र केवल परीक्षा के स्कोर नहीं हैं; उनकी मानसिक, भावनात्मक भलाई पर ध्यान दिए बिना शिक्षा अधूरी है – अमेरिकी स्कूलों में बढ़ता SEL और परामर्श पर जोर इस बात को स्वीकार करता है। पाँचवाँ, शिक्षा को कालानुरूप बनाये रखना जरूरी है – नई तकनीक, नई कौशल आवश्यकताओं के अनुसार लचीलापन चाहिए। अमेरिका ने समय-समय पर कोडिंग, STEM, कला, नागरिकशास्त्र जैसे क्षेत्रों को प्राथमिकता दी है, जिसका अनुकरण अन्य देशों को भी अपने संदर्भ में करना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय सहयोग के संदर्भ में, अमेरिका का अनुभव दिखाता है कि शिक्षा कोई एकांत प्रयास नहीं, बल्कि राष्ट्रों के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान सभी को लाभ पहुंचाता है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्रों व संकाय का योगदान, युनेस्को/यूनीसेफ़ में अमेरिका की भागीदारी, तथा भारत-अमेरिका जैसी साझेदारियाँ इंगित करती हैं कि मिलकर सीखना और सिखाना एक विश्व परिवार के निर्माण में सहायक है।
अंततः, एक प्रेरक आवाहन (Call to Action) सभी संबद्ध पक्षों – नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों, अभिभावकों, और स्वयं छात्रों – के लिए बनता है। हमें शिक्षा को सर्वोच्च नीति प्राथमिकता पर रखना होगा, क्योंकि यही आने वाली पीढ़ियों का भविष्य गढ़ेगी। अमेरिकी शिक्षा प्रणाली से हम अनेक अच्छी प्रथाएँ ग्रहण कर सकते हैं – जैसे हर स्तर पर नवाचार हेतु प्रोत्साहन, डेटा के आधार पर निर्णय, और समान अवसर का संकल्प – वहीं उनकी कमियों से सीख सकते हैं कि असमानता या अति-केन्द्रितता से कैसे बचना है। आज विश्व एक दूसरे से सीखकर ही आगे बढ़ सकता है।
जैसा कि अमेरिका में कहा जाता है, “It takes a village to raise a child” – एक बच्चे को सफलतापूर्वक बड़ा करने के लिए पूरे समाज का योगदान चाहिए। उसी तरह, एक प्रभावी शिक्षा प्रणाली के निर्माण के लिए हम सबकी साझा जिम्मेदारी है। आइए, हम शिक्षा को केवल सरकार या शिक्षकों का कार्यक्षेत्र न मानकर जन आंदोलन बनाएं: समुदाय अपने स्कूलों को सहयोग दें, उद्योग प्रशिक्षण व रिसर्च में हाथ बटाएं, विश्वविद्यालय समाज की समस्याओं का हल खोजें, और छात्र स्वयं सीखने के प्रति जागरूक व जिज्ञासु बनें। संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में तो खासकर, शिक्षा वह माध्यम है जिससे हम आने वाली पीढ़ियों को स्वतंत्र चिंतन, नवाचार और वैश्विक नागरिकता के गुण दे सकते हैं।
अंतिम विचार: अमेरिकी शिक्षा प्रणाली के विविध पहलुओं की यह यात्रा हमें दिखाती है कि शिक्षा में कोई अंतिम मंज़िल नहीं – यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो समाज के साथ विकसित होती रहती है। इस सफर में इतिहास से सबक लेते हुए, वर्तमान की चुनौतियों का मिलकर सामना करते हुए और भविष्य की तैयारी करते हुए हम सबको योगदान देना है। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम न सिर्फ अमेरिकी या भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बल्कि संपूर्ण वैश्विक शिक्षा जगत को उस दिशा में अग्रसर करेंगे जहाँ “शिक्षा वास्तव में सबको सशक्त बनाने वाली महान शक्ति बन सके।”
(स्रोत: उपरोक्त लेख में उल्लिखित तथ्य विभिन्न विश्वसनीय स्रोतों से संकलित एवं उद्धृत किए गए हैं आदि.)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिप्पणी करते समय मर्यादित भाषा का प्रयोग करें। किसी भी प्रकार का स्पैम, अपशब्द या प्रमोशनल लिंक हटाया जा सकता है। आपका सुझाव हमारे लिए महत्वपूर्ण है!