राजतरंगिणी: कश्मीर का ऐतिहासिक दस्तावेज और इसका महत्व
राजतरंगिणी और कश्मीर का इतिहास: एक विस्तृत अध्ययन
परिचय
राजतरंगिणी (Rajatarangini) कश्मीर के इतिहास पर आधारित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे 12वीं शताब्दी में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान कल्हण (Kalhana) ने लिखा था। यह ग्रंथ न केवल कश्मीर के प्राचीन इतिहास को दर्शाता है, बल्कि तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को भी उजागर करता है। राजतरंगिणी का शाब्दिक अर्थ है "राजाओं की धारा", जो कश्मीर के राजाओं और उनके शासनकाल का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करता है।
राजतरंगिणी: संक्षिप्त परिचय
- लेखक: कल्हण
- लिखित काल: 1148-50 ईस्वी
- भाषा: संस्कृत
- शैली: महाकाव्यात्मक ऐतिहासिक रचना
- विषय: कश्मीर का ऐतिहासिक एवं राजनीतिक वृत्तांत
राजतरंगिणी 7821 श्लोकों में विभाजित आठ तरंगों (अध्यायों) में लिखी गई है। इसे भारत का पहला प्रमाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ भी माना जाता है, क्योंकि इसमें विभिन्न स्रोतों के आधार पर ऐतिहासिक घटनाओं को संकलित किया गया है।
कश्मीर का प्राचीन इतिहास और राजतरंगिणी का योगदान
राजतरंगिणी न केवल कश्मीर के शासकों का वृत्तांत प्रस्तुत करती है, बल्कि यह भी बताती है कि कैसे यह क्षेत्र राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से विकसित हुआ।
1. कश्मीर की उत्पत्ति और प्रारंभिक राजवंश
- कश्मीर को प्राचीन काल में "सप्तर्षियों की भूमि" कहा जाता था।
- महाभारत और पुराणों में कश्मीर के उल्लेख मिलते हैं।
- कल्हण के अनुसार, कश्मीर की स्थापना राजा गोनंद ने की थी।
- गोनंद वंश के राजाओं ने कश्मीर पर लंबे समय तक शासन किया।
2. मौर्य और कुषाण काल का प्रभाव
- चंद्रगुप्त मौर्य (321-297 ईसा पूर्व) के समय कश्मीर मौर्य साम्राज्य का हिस्सा बना।
- अशोक (268-232 ईसा पूर्व) ने कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रचार किया और श्रीनगर में कई बौद्ध स्तूपों का निर्माण कराया।
- कुषाण शासक कनिष्क (78-144 ईस्वी) ने भी बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया और यहां कुंजर विहार की स्थापना की।
3. कार्कोट वंश (7वीं-9वीं शताब्दी)
- इस वंश के सबसे प्रसिद्ध शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ (724-761 ईस्वी) थे।
- उन्होंने कश्मीर को एक शक्तिशाली राज्य बनाया और तिब्बत, बंगाल और मध्य एशिया तक अपना प्रभाव स्थापित किया।
- उनके शासनकाल में कश्मीर में कला, साहित्य और स्थापत्य कला का विकास हुआ।
4. उत्पल वंश (9वीं-10वीं शताब्दी)
- इस वंश का सबसे प्रमुख शासक अवंतिवर्मन (855-883 ईस्वी) था।
- उसने कश्मीर में सिंचाई व्यवस्था को सुधारने के लिए सुथुय (सिंधु) बांध का निर्माण कराया।
- अवंतीपुर और मार्तंड मंदिरों का निर्माण इसी काल में हुआ।
5. लोहार वंश और कश्मीर पर तुर्क आक्रमण (11वीं-12वीं शताब्दी)
- इस वंश के राजा संग्रामराजा और हर्षदेव ने कश्मीर पर शासन किया।
- इस दौरान मुस्लिम आक्रमणों की शुरुआत हुई, जिससे कश्मीर का राजनीतिक ढांचा कमजोर होने लगा।
- 1320 ईस्वी में शम्सुद्दीन शाह मीर ने कश्मीर में मुस्लिम शासन की नींव रखी।
राजतरंगिणी की ऐतिहासिक प्रामाणिकता
- यह ग्रंथ ऐतिहासिक तथ्यों, मिथकों और कविताओं का मिश्रण है।
- इसमें 400 ईसा पूर्व से 12वीं शताब्दी तक के कश्मीर के राजाओं का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
- यह कश्मीर की संस्कृति, धार्मिक परंपराओं और प्रशासनिक ढांचे की जानकारी प्रदान करता है।
- इसमें कुछ घटनाएं अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन अधिकांश विवरण ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक माने जाते हैं।
राजतरंगिणी की विशेषताएँ
- कालक्रमबद्ध इतिहास – इसमें कश्मीर के राजाओं के शासनकाल को एक क्रम में रखा गया है।
- संस्कृति और कला का विवरण – इसमें कश्मीर के मंदिर, वास्तुकला और शिल्पकला का वर्णन मिलता है।
- धार्मिक विविधता – बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म और शैव परंपराओं के विकास का उल्लेख किया गया है।
- राजनीतिक संघर्ष – राजतरंगिणी में दरबारी षड्यंत्र, युद्ध और राजनीतिक चालों का रोचक वर्णन मिलता है।
राजतरंगिणी की आधुनिक प्रासंगिकता
- यह ग्रंथ भारतीय उपमहाद्वीप में ऐतिहासिक लेखन की परंपरा का प्रमाण है।
- कश्मीर के इतिहास, समाज और प्रशासनिक प्रणाली को समझने के लिए यह एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
- आधुनिक इतिहासकार इसे भारत का पहला वास्तविक ऐतिहासिक ग्रंथ मानते हैं।
- भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) और कश्मीरी इतिहासकारों ने इस ग्रंथ की कई व्याख्याएँ प्रकाशित की हैं।
निष्कर्ष
राजतरंगिणी न केवल कश्मीर के प्राचीन इतिहास को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किस प्रकार यह क्षेत्र राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध था। यह ग्रंथ भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे पढ़कर हम कश्मीर के अतीत को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।
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